Saturday, September 15, 2007

धान के देश में - 7

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 7 -

दीन दयाल बूढ़े हो चुके थे। वे अपने आँगन में आराम कुर्सी पर बैठे हाथ में एक रजिस्टर लिये उसे खोल कर चश्मे के काँच में से हिसाब देख रहे थे। साथ ही उनका ध्यान आँगन में काम करते हुये नौकरों की ओर भी था। काँवड़ों में भर-भर कर नौकर खलिहान से धान लाकर आँगन में उंडेल रहे थे। दूसरे नौकर टोकरों में धान भर-भर कर बाँस की सीढ़ी से ऊपर चढ़ा कोठे में भर रहे थे। कोठे के निचले भाग में पुल के मेहराब के समान कई सुरंगें थीं। जिन पर कोठे का धान रखने का निचला भाग था। ऊपर दरवाजा था। ऊपर से ही कोठे में धान रखा और बाहर निकाला जाता था

दीनदयाल का पोता महेन्द्र उसके पास ही खेल रहा था उसकी अवस्था भी सदाराम की अवस्था के बराबर थी सुबह के नौ बज चुके थे गर्मी की तेज धूप आंगन को सता रही थी दीनदयाल को प्यास का अनुभव हो रहा था उन्होनें पुकारा, "बहू, पानी तो ले आवो"

तीस‍‍‍‌ बत्तीस साल की सुकुमारी बहू ने पानी लाकर सामने रख दिया उसे देखकर दीनदयाल की आँखे डबडबा गई पानी रखकर बहू चुपचाप भीतर जाने लगी दीनदयाल एकटक उसी की ओर देखते और गहरी सांस लेते रहे! चांद सा चेहरा था पर बहुत ही कुम्हलाया हुआ! बदन पर सफेद साड़ी थी मांग सूनी और हाथो मे चांदी के पटे (कंगन नुमा आभूषण) थे एक लड़के को जन्म देने के बाद दीनदयाल की बहू का सुहाग भरी जवानी मे मिट गया था दीनदयाल का जवान बेटा श्यामलाल उसकी आंखो के सामने ही चल बसा था पुत्र शोक का वज्राघात उन्हें सहना पड़ा और कभी न बुझने वाली पुत्र शोक की आग उनके हृदय में सदा के लिये धधक उठी !

विधवा बहू की सुंदर पर करुण मूर्ति देखकर श्यामलाल की आंखो के सामने पिछली घटनायें चलचित्र की तरह घूमने लगी श्यामलाल अपनी शादी के बाद भी पढ़ ही रहा था उसे केवल पुस्तको और सैर सपाटे से ही मतलब था श्यामलाल अपने पिता की तरह दयालु, उदार और होनहार था गाँव मे भीषण रुप से महामारी फैली। उन दिनों उपेक्षित छत्तीसगढ़ में अस्पताल और चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं थी। एक दिन तो कै दस्त से मरने वालो की संख्या 28 तक पँहुच गई! मुर्दा ढ़ोना ही बचे खुचे लोगो का काम हो गया एक मुर्दा श्मशान पहुँचा कर आते न आते दूसरा मुर्दा तैयार मिलता। कहीं कहीं तो खुली गाडियो मे पाँच सात मुर्दे एक साथ ही भरकर खेतो मे फेंक दिये गये ऐसे अवसरों पर छत्तीसगढ़ मे अंधविश्वास भयानक रुप से प्रबल हो उठता है। विशूचिका का सम्बन्ध लोग टोनहियों (डायनों) से जोड़ते हैं। इसलिये जिन औरतों पर टोनही होने का शक होता था उन्हें लोग तरह-तरह से सताते थे। रात को दूर लालटेन की टिमटिमाती रोशनी भी दिख जाती तो लोग 'टोनही टोनही' चिल्लते हुये बेतहाशा दौड़ पड़ते थे। श्यामलाल को भी हैजा हो गया। कै-दस्त से पस्त होकर उसने आँखें मूँद लीं। उसकी माता सुनीता वह वज्रपात नहीं सह सकी। साथ ही वह भी हैजे की चपेट में आ कर दीनदयाल, जवान विधवा बहू और श्यामलाल के छोटे से पुत्र महेन्द्र को छोड़ कर सदा के लिये चली गई।

दीनदयाल के पास वही बच्चा खेल रहा था। खेलते-खेलते वह गिर गया और रोने लगा। पर दीनदयाल तो अतीत की यादों में खोये थे।

"अरे, अरे, गिर गया रे महेन्दर। चुप हो जा। मत रो बेटे।" सहसा किसी ने पुचकारते हुये कहा।
दीनदयाल रजिस्टर पर से आँखें उठा कर देखा तो राजवती महेन्द्र को बाहों में लिये चुप करा रही थी।
"कब आई राजो? न खबर थी और न तुम्हारे आने की आशा ही। सब कुशल तो है?" दीनदयाल ने पूछा।
"हाँ काका, सब ठीक है पर बात ही कुछ ऐसी आ गई कि आपके पास आना पड़ा।" राजो ने उत्तर देते हुये महेन्द्र को नीचे उतारा।

"सदाराम और श्यामवती कहाँ हैं?" दीनदयाल ने पूछा।

"उन्हें भी साथ लाई हूँ। अरे अभी तो यहीं थे।" कहकर राजवती ने इधर-उधर देखा।

"और महेन्द्र! वह शैतान भी कहाँ गया?" दीनदयाल ने भर्राये और घबराये स्वर में कहा।

राजवती और दीनदयाल की आँखें तीनों बच्चों को ढँढने लगीं। आखिर राजवती ने उन्हें ढूँढ ही निकाला। वे तीनों दीनदयाल की पीठ की ओर कुर्सी के पिछले भाग में छिप गये थे और महेन्द्र उचक कर दीनदयाल की चुटिया खींचने के प्रयत्न में था।

"अरे, ये तीनों तो यहाँ तुम्हारी पीठ के पीछे छिपे हैं और इस बन्दर महेन्द्र को तो देखो, आपकी चुटिया खींचने की तैयारी में है।" राजवती हँसती हुई बोली।

"ऐसा क्या। शैतान कहीं के। इधर आओ तुम तीनों।" दीनदयाल ने बनावटी क्रोध का प्रदर्शन करते हुये कहा। मगर दीनदयाल के आने के बदले तीनों बच्चे भाग गये।

उनके चले जाने पर गम्भीर होते हुये दीनदयाल ने कहा, "हाँ, तो क्या बात हो गई बिटिया?"

"मैने सिकोला सदा के लिये छोड़ दिया है काका" कहते-कहते राजो की बड़ी बड़ी आँखों से झर झर आँसू बहने लगे।

"रो मत बेटी, बता तो सही आखिर हुआ क्या?" दीनदयाल ने आश्वासन देते हुये पूछा।

"बात ही कुछ ऐसी है जो मेरे स्वभाव के विपरीत-" राजो अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाई थी कि दरवाजे पर किसी का कठोर स्वर सुनाई दिया, "चल तो मालगुजार के पास। बताता हूँ सब कुछ।"

दीनदयाल और राजवती की आँखें दरवाजे की ओर लग गईं। दोनों ने देखा कि अगनू अपनी स्त्री रधिया को बाल पकड़ कर धमकी देता खींचता ला रहा था। साथ में भगवानी भी था जो बड़बड़ा रहा था, "चलो, चलो, मालगुजार हमारे जातीय मामले में वही सलाह और न्याय देंगे जो हममें चलता है। वे हमसे हमारे रिवाज को तो अलग नहीं कर देंगे।"

उन तीनों के साथ गाँव के बहुत से छोटे-बड़े लोग भी थे। सब दीनदयाल के पास आ पहुँचे। दीनदयाल ने राजो से कहा, "बेटी, तू भीतर अपनी भाभी के पास जा। मैं देखता हूँ बात क्या है।"

"काका, मैं भी तो इसी गाँव की बेटी हूँ। मैं भी देखूँगी क्या झगड़ा है।" कह कर राजो वहीं खड़ी रही। राजो ने देखा कि रधिया के बाल बिखर गये थे, चेहरा तमतमाया था और दो-तीन चूड़ियाँ फूट गईं थी जिनके टुकड़ों के गड़ जाने से कलाई से खून बह रहा था। राजो समझ गई कि मामला कुछ टेढ़ा और गम्भीर है।

"क्या है रे अगनू, क्या हुआ?" दीनदयाल के ईस प्रश्न पर अगनू कुछ शर्मा गया और उत्तर न दे सका। नीची निगाह किये खड़ा रहा।

"यह क्या बतायेगा मालिक। इसमें दम ही क्या है।" भगवती कहता गया, "इसकी स्त्री रधिया मेरे घर "पैठू" ("पैठू" संस्कृत के 'प्रविष्ट' शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। जब कोई विधवा या सुहागिन दूसरे मर्द के घर उसकी पत्नी के रहते या न रहते उसकी राजी खुशी से घुस आती है तब उसे पैठू कहते हैं।) घुस गई है। अगनू इसे वापस ले जाना चाहता है। पर यह जाना नहीं चाहती। इसलिये इसने मेरे घर घुस कर रधिया को मारा और घसीटता हुआ आपके पास ले आया। मैं चाहता तो अगनू की लाश गिरा देता पर मैं सब कुछ रधिया के ऊपर छोड़ता हूँ। उसकी इच्छा हो तो वह अगनू के साथ अपने पुराने घर को चली जाय।"

दीनदयाल और राजवती की समझ में अब बातें आ गईं। रधिया की यह चाल देख कर राजवती को गहरा ठेस लगा। दीन दयाल के कुछ कहने से पहले ही राजवती बोली, "मै तुमसे एक बात पूछती हूँ भगवानी।"

"क्या पूछती हो राजो?" भगवानी बोला।

"यही कि तुम्हारी तो पत्नी है न?"

"हाँ है तो। लेकिन रधिया के ऊपर सब कुछ है। अगर वह मेरे धर आना चाहती है तो दोनों को चला लूँगा।" भगवानी ने गर्व से छाती फुलाते हुये कहा।

"तो मैं देखती हूँ कि इसमें रधिया का नहीं पर तुम्हारा बहुत ज्यादा हाथ है। रधिया का क्या। वह तो औरत ठहरी। इस तरह से तुम्हारी ओर से बढ़ावा न मिले तो क्या उसका साहस बढ़ सकता है? और फिर यह कुछ अच्छा है क्या? मान लिया कि हमारे गाँवों में ऐसा होता है। तो क्या इसीलिये ऐसा करना ही चाहिये या खराब बातों को दूर करनी चाहिये?" फटकारती हुई राजवती बोली।

अब तक अगनू चुप था। अब उसका भी साहस बढ़ा और वह बोला, "राजो बहिन का कहना बिल्कुल ठीक है। इन्हीं सब बातों से तो हम न पनप सके हैं और न पनप सकेंगे।"

वाह रे निखट्टू। राजो से साहस पा कर बड़बड़ाने लगा। जा नहीं जाती तेरे घर। क्या कर लेगा मेरा।" अगनू से रधिया ने फुँफकारते हुये कहा।

"रधिया, तू ही जब ऐसा कह और कर रही है तब तो हो चुका। ऐसे से औरत जात की मरजादा कहाँ रह जायेगी। राजवती ने रधिया को समझाया पर रधिया के मन में उसकी बात उसी प्रकार नहीं जमी जैसे औंधे घड़े में पानी की एक बूँद भी नहीं जाती। रधिया ने राजवती से केवल इतना ही कहा, "राजो, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। हम लोगों के बीच में मत पड़।"

राजवती चुप हो गई। समझ गई कि रधिया के मन पर सदियों का जो मैल जमा है उससे वह अन्धी हो रही है। वह किसी हालत से भी नहीं मानेगी। चुप रह जाना ही अच्छा है। उसे ठेस लगी। उसका हृदय तिलमिला रहा था वह जिन बातों को अपनी जन्मभूमि से - अपने गाँवों से - मिटी हुई देखना चाहती थी वे ही बातें उसकी आँखों के सामने हो रही थीं।

अभी तक दीनदयाल बड़े आश्चर्य से सब कुछ चुपचाप देख-सुन रहे थे और राजो के विचारों को समझ कर अचरज कर रहे थे। गर्व से उनकी चाती फूल रही थी। उनसे न रहा गया और वे बोले, "राजो, इनको तो इस समय शायद भगवान भी नहीं समझा सकेंगे, तेरी क्या बिसात है। जाने दे। मरने दे इन लोगों को। अभी हमारे छत्तीसगढ़ का ऐसा भाग्य ही कहाँ जो लोग अच्छी बातों को समझ सकें।" फिर उन्होंने आय हुये लोगों के सामने अपना विवश निर्णय देते हुये कहा, "भाइयों, सचमुच इस मामले में मैं बहुत दुःखी हुँ। हम लोगों में ऐसा नहीं होता। यदि हमारे समाज में कोई स्त्री ऐसा करे जीते जी उसका मुँह ही न देखें। मेरी चले तो मैं रधिया को अगनू का घर न छोड़ने के लिये ही कहूँ पर, विवश मन से ही सही, कहना पड़ता है कि जब तुम लोगों में ऐसा होता है तो मैं क्या कर सकता हूँ। अगनू, तुम अपने रिवाज या कायदे के मुताबिक भगवानी से अपनी शादी का खर्च ले लो। जब तुम्हारी ब्याहता रधिया ही नहीं मानती तब सिवाय इसके तुम कर भी क्या सकते हो।"

दीनदयाल के द्वारा यह निर्णय सुन कर सब संतोष के साथ चले गये। तब दीनदयाल ने राजो से पूछा, "हाँ, तो राजो, अब बतावो क्या हुआ?"

"क्या बताऊँ काका, हममें जो प्रथायें चली हैं उनसे मैं परेशान हूँ। सिकोला में दुर्गाप्रसाद ने मुझे तंग कर रखा था। कहता था - 'मेरे घर चलो। मेरा हाथ पकड़ लो।' पर मुझे इन सब बातों से बड़ी चिढ़ है।" राजो ने निर्भीकता, दृढ़ता और शान्ति से उत्तर दिया।

"लेकिन वहाँ के घर-द्वार, खेती-बाड़ी का क्या होगा?" दीनदयाल ने प्रश्न किया।

"आपके रहते क्या उन सबका प्रबन्ध नहीं हो जावेगा। पहले मैंने उन सबको बेच देने के लिये सोचा पर बात मुझे ही नहीं जँची। उनकी और सास-ससुर की जमीन-जायदाद बिगाड़ना मैंने अच्छा नहीं समझा। किसी दिन बच्चे बड़े होंगे तो उन्हें सिकोला में भी पैर रखने की गुंजाइश तो रहेगी।" कहते कहते राजवती का गला रुँध गया, आँखें भर आईं। सिकोला उसका निजी घर हो चुका था। वहाँ उसके जीवन का दीर्घ समय बीता था। "और फिर काका," राजो कुछ उत्तेजित-सी होकर परन्तु संयम का साथ कहती गई, "आप ही लोगों के मुँह से सुना है कि मायके से ससुराल गई हुई स्त्री की अर्थी वहीं से निकलनी चाहिये। इस विचार से भी मैंने सिकोला से पूरा सम्बन्ध नहीं तोड़ा है कि भगवान ने चाहा तो मेरी मौत वहीं हो।"

राजवती की बातें सुनकर दीनदयाल को गर्व का अनुभव हुआ। उन्हें लगा मानो आज सचमुच ही राजो उनकी सगी सन्तान है। उन्होंने राजो को अपनी सगी बेटी की तरह कभी न माना हो ऐसी बात नहीं थी किन्तु आज तक उनकी यह भावना प्रबलतम हो उठी। उनकी आँखों की कोरों में हर्ष के कारण आँसू छलकने वाला था पर उन्होंने बल पूर्वक उसे रोक रखा, राजो भाँप न सकी।

दीनदयाल ने उल्लस भरे शब्दों में कहा, "अच्छा ही किया बिटिया तूने। अब किसी बात की चिन्ता मत कर। अभी तेरे इस बूढ़े काका में भीमसेन के समान काम करने की ताकत है। मैं सब सम्भाल लूँगा। जा तू अपनी भाभी के पास। भविष्य में क्या करना होगा इसे मैं सोच कर सब ठीक कर लूँगा।
राजो भीतर बहू के पास चली गई। दीनदयाल की बहू का नाम सुमित्रा देवी था। वह रसोई घर से आड़ में छिप कर सब कुछ सुन रही थी। जैसे ही राजो उसके पास पहुँची, सुमित्रा ने चुटकी लेते हुये कहा, "क्यों री राजो, चली क्यों नहीं जाती दुर्गाप्रसाद के घर उसका हाथ पकड़ कर। दो महीना पहले तेरे काका के पास वह आया था तो मैंने उसे देखा था। वह तो पूरा साँड़ है साँड़।"

"वाह सुमित्रा भाभी, तुम्हीं न चली जावो उस साँड़ के साथ।" राजवती ने तुरन्त ही उत्तर दिया।

"हममें ऐसा रिवाज होता तो जरूर चली जाती।" सुमित्रा ने हँसते हुये कहा।

"भाभी, पहले तो तुम लोगों में न तो यह रिवाज है और न होगा। अगर हो भी जाये तो भी मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ, तुम मुझसे भी अधिक अड़ियल हो। तुम या तो उस रिवाज को ही मिटा देतीं या खुद मर मिटती।" राजो ने विनोद के वातावरण में गम्भीरता का संचार किया।

अपनी सच्ची आलोचना सुनकर सुमित्रा को अपने चारों ओर स्वर्ग-सुख बिखरा हुआ जान पड़ा। उसे लगा कि श्यामलाल की आत्मा उसकी अन्तरात्मा से तिल भर भी दूर नहीं है। श्यामलाल मानो उससे कह रहा है 'मैं तुम्हारी बाट जोहता रहूँगा चाहे तुम पृथ्वी से सौ साल बाद ही क्यों न मेरे पास आवो।"

(क्रमशः)

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