Saturday, August 29, 2009

अब्लोगस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम्

जैसा कि निम्न श्लोक में कहा गया है कि मित्र के बिना सुख कहाँ? और धन के बिना मित्र कहाँ?

अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम्॥

अर्थात् आलसी के पास विद्या कहाँ? विद्या के बिना धन कहाँ? धन के बिना मित्र कहाँ? और मित्र के बिना सुख कहाँ?

यदि इस श्लोक की रचना के जमाने में ब्लोग होते तो श्लोककर्ता ने "अधनस्य कुतो मित्रम्" के स्थान पर "अब्लोगस्य कुतो मित्रम्" ही लिखा होता क्योंकि धन की सहायता से प्राप्त मित्र सच्चे मित्र हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते किन्तु ब्लोग के द्वारा सच्चा मित्र ही प्राप्त होता है।

पर अपने लिए तो गाहे बगाहे ये समस्या आती ही रहती है भैयाः

खूब खपाई खोपड़ी, औ खुद खप गए यार।
लिख ना पाए आज कुछ, हम ब्लोगर बेकार॥
हम ब्लोगर बेकार, थक कर अब सिर धुनते हैं।
जाने कैसे लोग, प्रविष्टि-पुष्प चुनते हैं?
बुद्धि हो गई भ्रष्ट, आज तो गए हम ऊब।
लिख ना पाये यार, खपाई खोपड़ी खूब॥

4 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

होता है
होता है
....
....
फिर ठीक हो जाता है।
ब्लॉगिया फिर ठेलने लगता है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

कभी कभी ऐसा भी होता है।

36solutions said...

सर जी, आपने टीवी जैसा ब्रेक लिया है. हमें ज्ञात है, आपके लिये पोस्‍ट विषयों की कमी नहीं.

naresh singh said...

दिलचस्प बात कही है ।