Friday, September 18, 2009

आखिर धर्म क्या है?

धर्म का उद्देश्य होता है सबकी भलाई करना किन्तु विडम्बना यह है कि धर्म के नाम से आज तक लड़ाइयाँ ही अधिक हुई हैं। अपने धर्म को महान और दूसरे के धर्म को तुच्छ मानने का हमारा पूर्वाग्रह ही इन लड़ाइयों के कारण होते हैं।

इस विषय में मैंने आज तक जो कुछ भी अपने बड़े बुजुर्गों तथा विभिन्न प्रवचनकारियों से जो सुना, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में जो पढ़ा और परिणामस्वरूप जो मेरे विचार बने उससे मैं आपको इस पोस्ट के माध्यम से अवगत कराना चाहता हूँ। मैं यहाँ पर यह भी बता देना चाहता हूँ कि ये विशुद्ध रूप से मेरे अपने विचार हैं, इसे मानने न मानने की इच्छा आपकी है।

जहाँ तक मेरा विचार है धर्म परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता है। एक ही मंजिल के लिए रास्ते अनेक हो सकते हैं। यदि परमात्मा को मंजिल मान लिया जाये तो उस तक पहुँचने के लिए रास्ते भी अनेक हो सकते हैं इसीलिए धर्म अलग अलग हैं। अलग अलग होते हुए भी सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है और वह है परमात्मा तक पहुँचाना। और जब सभी धर्मों का उद्देश्य एक है तो यही कहा जा सकता है कि सभी धर्म समान हैं, न कोई छोटा है न कोई बड़ा।

समय काल परिस्थिति के अनुसार अलग अलग धर्म बनते रहे हैं और नष्ट भी होते रहे हैं। कुछ धर्म आपस में विलीन भी हुए हैं। जैसे कि किसी काल में भारतवर्ष में मुख्यरूप से तीन धर्म हुआ करते थे वैष्णव, शैव और शाक्त। वैष्णव विष्णु के, शैव शिव के और शाक्त शक्ति के अनुयायी हुआ करते थे। इन धर्मों को मानने वाले भी अपने धर्म और अपने देवता को अन्य के धर्म और अन्य के देवता से महान माना करते थे और इसी कारण से वैष्णव, शैव और शाक्त में आपस में लड़ाई हुआ करती थी। इन लड़ाइयों को समाप्त करने के लिए ही हमारे ऋषि मुनियों, जो कि महान विचारक हुआ करते थे, इन तीनों धर्मों को विलीन कर के एक धर्म बना देने का संकल्प लिया। उन्होंने समझाया कि विष्णु, शिव, शक्ति आदि सभी देवी देवता महान हैं। उन विचारकों के प्रयास से ये तीनों धर्म आपस में विलीन हो गए और परिणामस्वरूप सनातन धर्म का उदय हुआ जिसके अनुयायी सभी देवी देवताओं को मानते थे। महर्षि वाल्मीकि से ले कर आदि शंकराचार्य तक समस्त विचारकों का सदैव प्रयास रहा कि धर्म के नाम से आपस में लड़ाइयाँ न हों।

एक लंबे समय तक आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण ने लोगों को एक सूत्र में बांध के रखा। कालान्तर में भारतवर्ष में विदेशियों का आधिपत्य हो जाने के कारण रामायण की भाषा संस्कृत का ह्रास होने लग गया और वाल्मीकि रामायण का प्रभाव क्षीण होने लग गया। शायद इसी बात को ध्यान में रख कर तथा लोगों को अपने धर्म के प्रति जागरूक रखने के लिए तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की। रामचरितमानस की भाषा संस्कृत न होकर अवधी थी जिसे कि प्रायः सभी लोग समझते थे।

इस अन्तराल में सनातन शब्द हिन्दू शब्द में परिणित हो गया और सनातन धर्म हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाने लगा। यह परिवर्त कब, क्यों और कैसे हुआ इसके विषय में विभिन्न विद्वानों का विभिन्न मत है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक काल में प्रचलित शब्द 'सप्तसिन्धु' से सप्त विलुप्त होकर 'सिन्धु' बना जो कि बाद में 'हिन्दू' हो गया।

समय समय में महावीर, बुद्ध, नानक जैसे अन्य विचारकों ने भी जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि धर्मों को प्रचलित किया। भारत में मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों आदि के स्थाई रूप में बस जाने पर इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि धर्मों को भी भारत में प्रचलित धर्म मान लिया गया।

इस विषय में आप लोगों की जानकरी का स्वागत है।

5 comments:

Saleem Khan said...

अवधिया जी, आपने लिखा:
भारतवर्ष में मुख्यरूप से तीन धर्म हुआ करते थे वैष्णव, शैव और शाक्त।
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वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाय थे, धर्म नहीं.

राज भाटिय़ा said...

जी.के. अवधिया,आप के विचार से सहमत हुं कि हम सब के रास्ते अलग अलग है, लेकिन उपर वाला एक है, अपने धर्म मै रह कर भी दुसरे के धर्म की इज्जत करो, सब धर्म बराबर है, लेकिन कई छेदी लाल इस बात को नही समझते, इस लिये आप इन से बहस ही मत करे, जेसा कोई करेगा, वेसा भरेगा, ठीक है भाई अगर आप का भगवान/ खुदा/ गोड हमारे मानने से बडा होता है, तो बहुत खुशी की बात है, ओर वो यह सिद्ध करना चाहते है कि उन का भगवान/ खुदा/ गोड इंसानो का मोहताज है कि आओ ओर हमारे आगे झुको....ओर जो नही झुकेगा उसे मेरे आदमी गोलियो से भुन देगे, सिर्फ़ मेरे आगे झुकने वाले ही जिन्दा रह सकते है, ... जो जबर्दस्ती लादा जाये वो धर्म नही हो सकता... जब्ररदस्ती तो ..... करते है
अब आप इस किस्से को यही खत्म करो मेरी आप से विनिती है.
धन्यवाद

Taarkeshwar Giri said...

श्रीमान अवधिया जी नमस्कार,

बहुत ही बढ़िया बात लिखी है आपने, वैशनव, शैव और शक्त अलग -अलग धर्मं नही थे और ना ही अलग-अलग संप्रदाय, ये तो सिर्फ़ अपनी अपनी परम्परा थी, क्योंकि हिंदू कोई धर्म नही है, ये ख़ुद भी एक परम्परा है, मेरे समझ से धर्म तो उसे कहते है जिसको मानने वाले एक ही तरह से पूजा पद्धति पर भारोशा करते हैं ना की अलग-अलग, सिख धर्म है, इशाई एक धर्म है और ख़ुद इस्लाम भी एक धर्म hai , मगर हिंदू धर्म कंहा हैं, महाराष्ट्र मैं गणेश पूजा, तो साउथ इंडिया में पोंगल, तो बंगाल में काली पूजा तो उत्तर भारत में, दीवाली, छठ दसहरा, पूर्णिमा, पंजाब में वैशाखी और लोहरी आपस में समानता भी तो नही है , उत्तर भारत में राम-कृष्ण , दुर्गा और वैशनव तो साउथ में वेंकटेश तो गुजरात में द्वारिकदीश । अभी उत्तर भारत में नवरात्रे शुरू हो चुके हैं तो लोगो के घरो से लहसुन और प्याज तक गायब हो चुके हैं, लेकिन बिहार, बंगाल आसाम, उडीसा और नेपाल में तो नवरात्रों में जानवरों की बलि तक का प्रावधान है, तो कंहा से आप या कोई हिंदू को धर्म कहता है। हिंदू सदियों से चली आ रही एक परम्परा है जिसको लोग अलग-अलग तरीके से निभाते हैं।

हिंदू तो हिंदू न कह कर के सनातन धर्म कहा जाए तो ज्यादे अच्छा रहेगा ।

हिंदू शब्द की उत्त्पति भारत के लोगो के द्वारा नही बल्कि फारसियों के द्वारा की गई है, २५०० साल पहले जब फारसियों ने भारत पर आक्रमण करना शुरू किया तो उनका मुकाबला सबसे पहले सिन्धु नदी से हुआ, जिसका उच्चारण उनके द्वारा सिन्धु ना होकर के हिंदू हुआ, और वंही से हम हिंदू हो गए।

इंडियन शब्द भी हमें दान में यूरोपियन लोगो ने दिया है , यूरोपियन लोगो नो सिन्धु नदी को इंदस रिवर कहा, वंहा से हम हो गये इंडियन .

दिनेशराय द्विवेदी said...

भारत में धर्म किसी पद्धति का नाम नहीं रहा है। सन्मार्ग ही धर्म था। जिसे सनातन कहा गया था वह भी सनातन नहीं अपितु प्राचीन (द्रविड़) भारतीय धर्म और वैदिक धर्म का मिश्रण था। जिस में द्रविड़ संस्कृति के धर्म के तत्व हावी थे और आज भी प्रधान वे ही हैं। धर्म जो है वह तो तुलसीबाबा बता गए हैं। पर हित सरिस धरमु नहीं भाई!

MD. SHAMIM said...

sir ji, chahe koi kuch bhi TIPPANI kare, ye jankari achchhi hai.
AISE HI LAGE RAHIYE.