Friday, May 28, 2010

कुछ छुपा-छुपा सा कुछ झलक रहा सा ...

सौन्दर्य एक ऐसी अनुभूति है जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति करता है। जहाँ हम प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत होते हैं वहीं नारी का सौन्दर्य हमें सदा ही आकर्षित करता है। ईश्वर ने नारी को सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति ही बनाकर भेजा है। प्रेम, ममता, वात्सल्य और सौन्दर्य नारी के सहज गुण हैं।

(चित्र गूगल इमेजेस से साभार)
आप सोच रहे होंगे कि बुड्ढा शायद सनक गया है। हो सकता है कि मैं सनक ही गया होऊँ क्योंकि बुड्ढे प्रायः सनकी तो हो ही जाते हैं। हमेशा अतीत में जीने वाले होते हैं ये। आज सौन्दर्य की बात इसी लिये लिख रहा हूँ कि अतीत की कुछ बातें याद आ गईं। संगीत का भी अपना एक सौन्दर्य होता है और बात याद आ गई उसी संगीत के सौन्दर्य की।

बात सन् 1973-74 की है जब मेरी नौकरी लगी थी और मुझे पहली बार रायपुर छोड़कर नरसिंहपुर में जाकर रहना पड़ा था। मनोरंजन के लिये सिर्फ सिनेमा और रेडियो था। उन दिनों हम सभी फिल्म संगीत के दीवाने हुआ करते थे। संगीतकारों की भी अपनी अपनी स्टाइल थी जो कि उनकी अपनी पहचान हुआ करती थी। प्रायः सभी संगीतकार अपने संगीत में कहीं न कहीं किसी विशिष्ट वाद्ययंत्र का प्रयोग किया करते थे जैसे कि शंकर जयकिशन के संगीत में एकार्डियन और बाँसुरी का, रवि के संगीत में पियानो का, कल्याणजी आनन्दजी के संगीत में क्लार्नेट का, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में ढोलक का विशिष्ट प्रभाव हुआ करता था। गाने के आरम्भ होते ही समझ में आ जाता था कि संगीतकार कौन है।

हमारे साथ श्री व्ही.जी. वैद्य भी कार्य करते थे जिनसे हमारी मित्रता हो गई। वे थे मस्त-मौला आदमी और ओ.पी. नैयर के संगीत के दीवाने! (थे इसलिये लिख रहा हूँ कि कई सालों से उनसे सम्पर्क नहीं है)। आलम यह था कि रास्ता चलते यदि कहीं उन्हें कहीं पर भी नैयर जी का संगीत सुनाई पड़ गया तो वहीं पर रुक कर खड़े हो जाते थे, साथ ही जो कोई भी उनके साथ हो उन्हें भी रुक जाने के लिये मजबूर कर देते थे और तब तक वहाँ से न हिलते जब तक कि गाना पूरा न हो जाये।

एक दिन मैंने मित्र से पूछ ही लिया कि यार वैद्य, तुम्हें ओ.पी. नैयर का संगीत इनता प्रिय क्यों लगता है? प्रश्न सुनकर कुछ पल के लिये वह सोचता रहा फिर बोला कि वो क्या है अवधिया, अगर कोई महिला गहनों-कपड़ों से पूरी तरह से ढँकी हो तो उसका एक अलग सौन्दर्य होता है और कोई महिला बिल्कुल भी न ढँकी हो तो उसमें भी एक अलग सौन्दर्य होता है पर यदि कोई महिला कुछ-कुछ ढँकी हो हुई हो और कुछ-कुछ छुपी हुई हो तो उसका सौन्दर्य निराला होता है जो मन को एक अलग ही अनुभूति से भर देता है। मेरे लिये नैयर जी का संगीत तीसरे प्रकार का सौन्दर्य है इसीलिये मैं उनके संगीत का दीवाना हूँ।

12 comments:

drsatyajitsahu.blogspot.in said...

मेरे लिये नैयर जी का संगीत तीसरे प्रकार का सौन्दर्य है इसीलिये मैं उनके संगीत का दीवाना हूँ।
very nice post

36solutions said...

प्रभावशाली और भावनाप्रद कविता, धन्‍यवाद गुरूदेव.

SANJEEV RANA said...

बहुत बढ़िया

शिवम् मिश्रा said...

उम्दा पोस्ट !

मनोज कुमार said...

नैयर के संगीत का जादू सर चढकर बोले।

ZEAL said...

Whatever a woman will wear, a man will find it transparent !

Sigh !

राज भाटिय़ा said...

आप ने दोस्त ने सही कहा.. अगर कोई महिला गहनों-कपड़ों से पूरी तरह से ढँकी हो तो उसका एक अलग सौन्दर्य होता है और कोई महिला बिल्कुल भी न ढँकी हो तो उसमें भी एक अलग सौन्दर्य होता है पर यदि कोई महिला कुछ-कुछ ढँकी हो हुई हो और कुछ-कुछ छुपी हुई हो तो उसका सौन्दर्य निराला होता है जो मन को एक अलग ही अनुभूति से भर देता है।
बहुत सुंदर

राजकुमार सोनी said...

नैय्यर जी का जादू तो अभी भी सिर चढकर बोलता है। अच्छी पोस्ट है आपकी।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

वाह!
सरल शब्दों में बड़ी बात.

संजय @ मो सम कौन... said...

अवधिया साहब, हमारे एक अंकल ने ’हावड़ा ब्रिज’ बत्तीस बार देखी थी और वो भी सिर्फ़ ओ.पी.नैय्यर के कारण। आपके मित्र की बात से हमें उनकी याद आ गई। आपके मित्र की बात में दम है। शायद ओ पी नैय्यर जैसा जिद्दी संगीतकार अपनी फ़िल्म इंडस्ट्री में नहीं हुआ। संगीत की दुनिया में उनका स्टाईल राजकुमार ’जानी’ जैसा ही है, एकदम हट के, स्टाईल भी और अकड़ भी।
अच्छा लगा याद करना उनको।

Khushdeep Sehgal said...

अवधिया जी,
ये ओ पी नैयर का ही माद्दा था कि लता मंगेशकर से बैर लेने के बाद भी उन्होंने इंडस्ट्री में अपना अलग ऊंचा मकाम बनाए रखा...बेशक इसके लिए उन्हें लता की काट के लिए उन्हीं की छोटी बहन आशा भोसले की आवाज़ को तराशना पड़ा...ओ पी नैयर के संगीत की एक विशिष्ट पहचान थी...घोड़ों की टाप की आवाज़...

जय हिंद...

सूर्यकान्त गुप्ता said...

अपन यह पोस्ट देख/पढ नही पाये थे। पुरानी यादों में बहुत कुछ छुपी हुआ है। सुन्दर!