Sunday, July 4, 2010

मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ

इक आग के दरिया में मै डूब के आया हूँ
जिल्लत है मिली मुझको पर इश्क नहीं पाया हूँ

कुचले हैं मेरे अरमां टूटी है मेरी आशा
गैरों का सताया हूँ अपनों का रुलाया हूँ

दिल में थे जितने अरमाँ आँखों में जितने सपने
अपने पे लुटाना था तुझ पे ही लुटाया हूँ

एहसास है मुझको ये भी तेरे प्यार में डूबा हूँ
अपना न रहा अब मैं तेरा भी न हो पाया हूँ

बरबाद हो गया हूँ चाहत में तेरी अब तक
पाना था तुझको लेकिन खुद को ही गवाँया हूँ

खोने के बाद तुझको मरने की तमन्ना है
मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ

8 comments:

vandana gupta said...

बेहतरीन भाव संयोजन----------कल के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर गज़ल...

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब जी, धन्यवाद

शिवम् मिश्रा said...

बहुत खुब!

The Straight path said...

बहुत खुब आभार !

Archana Chaoji said...

बहुत पसंद आई ये रचना......

Shah Nawaz said...

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल, बहुत खूब!



बाहर मानसून का मौसम है,
लेकिन हरिभूमि पर
हमारा राजनैतिक मानसून
बरस रहा है।
आज का दिन वैसे भी खास है,
बंद का दिन है और हर नेता
इसी मानसून के लिए
तरस रहा है।

मानसून का मूंड है इसलिए
इसकी बरसात हमने
अपने ब्लॉग
प्रेम रस
पर भी कर दी है।
राजनैतिक गर्मी का मज़ा लेना
इसे पढ़ कर यह मत सोचना
कि आज सर्दी है!

बहार राजनैतिक मानसून की

प्रवीण पाण्डेय said...

लगता है इस बार सूरज ढूढ़ लूँगा मैं,
जमीन पे देखकर अब ढूढ़ता मैं साया हूँ ।