Monday, October 18, 2010

नाटक से सिनेमा तक

घरों-घर में टी.व्ही. हो जाने के कारण यद्यपि सिनेमा का महत्व आज कुछ कम-सा हो गया है तथापि सिनेमा आज मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। मनुष्य की व्युत्पत्ति के समय से ही मनोरंजन उसकी प्रमुख आवश्यकताओं में से एक रही है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मनुष्य के साथ ही साथ समस्त प्राणियों की पहली आवश्यकता है क्षुधा-शान्ति अर्थात् पेट भरना। अथक परिश्रम करके क्षुधा-शान्ति की व्यवस्था कर लेने के बाद मनुष्य अपनी थकान को मिटाने के लिए मनोरंजन की तलाश करता है। मनोरंजन की इसी तलाश ने मनुष्य को शिल्पकार, चित्रकार, कवि बनाया क्योंकि कला और कविता से उसे जो रस प्राप्त हुआ वह उसके मनोरंजन का भी साधन बना।

मनुष्य को भरपूर मनोरंजन काव्य से उत्पन्न रस से ही मिला इसलिए काव्य को दो भागों में विभक्त कर दिया गया - श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य! श्रव्य काव्य में केवल श्रवण से ही रस प्राप्त होता है किन्तु दृश्य काव्य में मनुष्य को श्रवण के साथ ही साथ दृश्य का भी आनन्द प्राप्त होता है। समस्त नाटक दृश्य काव्य के अन्तर्गत ही आते हैं। नाटक अर्थात् दृश्य काव्य ने मनुष्य को दृश्य काव्य की अपेक्षा अधिक रमणीयता प्रदान किया फलस्वरूप नाटकों की रचना होने लगी।

ऋग्वेद में मिलने वाले यम-यमी, अगस्त्य-लोपमुद्रा, इन्द्र-अदिति, पुरूरवा-उर्वशी संवाद प्राचीन नाट्य के रूप-से ही प्रतीत होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृत रंगमंच की परंपरा वैदिक काल में ही आरम्भ हो चुकी थी। नाटक रचने के लिए जो शास्त्रीय जानकारी की आवश्यकता होती है उसे नाट्यशास्त्र कहा जाता है। भरत मुनि द्वारा रचित "नाट्यशास्त्र" को प्राचीनतम नाट्य शास्त्र का ग्रंथ माना जाता है। यद्यपि भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की, किन्तु वे स्वयं ब्रह्मा को नाट्यशास्त्र के रचयिता मानते हैं।

माना जाता है कि भरत मुनि का काल ईसा पूर्व चौथी सदी से लेकर ईसा पूर्व पहली सदी तक का है, अर्थात् भारत में ईसा पूर्व चौथी सदी में ही नाटक की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। उस काल से एक लम्बे अन्तराल तक रंगकर्म राजमहलों में मनोरंजन का मुख्य साधन रहा क्योंकि राजदरबार ही उस काल में कवियों के, जो कि नाटकों की रचना करते थे, आश्रय स्थल हुआ करता था तथा वे पूर्णतः राजाओं के ही आश्रित हुआ करते थे। प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि महाकवि भास के स्वप्नवासवदत्तम् ,प्रतिज्ञायौगंधरायणम् तथा महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीयम् आदि नाटकों का मंचन राजमहलों में ही होता था। यही कारण है कि प्राचीन नाटकों के नायक-नायिका प्रायः राजा और रानी ही हुआ करते थे तथा उनके चरित्र-चित्रण का महत्व अत्यन्त प्रभावशाली हुआ करते थे। किन्तु बाद में धीरे-धीरे रंगकर्म जन-साधारण में फैलने लगा और नगरों तथा गावों तक पहुँच गया। शूद्रक के मृच्छकटिकम् में नायक राजा न होकर निर्धन व्यक्ति चारुदत्त है और उस नाटक में राजा आर्यक का चरित्र अत्यन्त लचर है अतः ऐसा प्रतीत होता है कि शूद्रक के मृच्छकटिकम के समय तक रंगमंच जन-साधारण में पहुँच चुका था।

नाटकों की अपनी विशेषताएँ हुआ करती थीं किन्तु विशाखदत्त के "मुद्राराक्षस" नाटक की में एक अलग ही विलक्षणता है - वह यह कि इस नाटक में कोई भी महिला पात्र नहीं है और यह नाटक राजनीति तथा कूटनीति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है।

प्राचीनकाल में नाटकों का मंचन प्रायः वसन्तोत्सव के समय ही किया जाता था किन्तु कालान्तर में नाटकों के मंचन के लिए किसी प्रकार का काल-बन्धन नहीं रहा और वर्ष के किसी भी काल में नाटक खेले जाने लगे।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काल को हिन्दी रंगमंच के आरम्भ का काल माना जाता है तथा उस काल के नाटकों में अनके सामाजिक नाटकों की रचना हईं जिनमें लोक-जागरण प्रमुख विषय रहा।

युग बदलने के साथ-साथ नाटकों का प्रचलन भी कम होते गया और नाटकों का रूप भी बदलने लगा। क्षेत्र विशेष में नाटक के अनेक रूप तथा नाम हो गए जैसे कि महाराष्ट्र में "तमाशा", उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में "नौटंकी", बंगाल, उडीसा और पूर्वी बिहार "जात्रा" - गुजरात में "भवई", कर्नाटक में "यक्षगान", तमिलनाडु में "थेरुबुट्टू", छत्तीसगढ़ में "नाचा" या "गम्मत" आदि।

सिनेमा के आने के बाद से नाटकों का महत्व और भी कम होने लगा तथा रंगकर्म सिमटते ही चला गया। किन्तु वास्तव में कहा जाये तो सिनेमा का जनक नाटक ही है।

चलते-चलते

संस्कृत के कुछ प्रसिद्ध नाटक:

अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीयम् - महाकवि कालिदास
स्वप्नवासवदत्तम् ,प्रतिज्ञायौगंधरायणम् - महाकवि भास
मृच्छकटिकम् - शूद्रक
मुद्राराक्षस - विशाखदत्त
मालतीमाधव, उत्तररामचरित - भवभूति
वेणीसंहार - भट्टनारायण

8 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हमने तो पहला नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम पढ़ा था. अभी तक आनन्द आता है..

मनोज कुमार said...

इस विषय कई नई जानकारी प्राप्त हुई। काफ़ी शोध करके आपने लिखा है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
उठ तोड़ पीड़ा के पहाड़!

संजय बेंगाणी said...

सुन्दर जानकारी. संस्कृत नाटकों की सुची उपयोगिता को बढ़ाने वाली है.

amitesh said...

सुन्दर पोस्ट. इसे भी देखें.
http://rangwimarsh.blogspot.com/2010/10/blog-post.html

राज भाटिय़ा said...

अति सुन्दर प्रस्तुति . धन्यवाद

प्रवीण पाण्डेय said...

अभी कुछ दिन पहले ही यक्षगान देखा है।

Rahul Singh said...

जानकारियों और उन्‍हें ताजा करने का सफल प्रयास, बधाई.

Web site promotion said...

आज के इस भोतिक युग में आपका ये प्रयास अति उत्तम हैं
Rajasthan Tour