गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय॥
सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय।
सात समुन्द की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा ना जाय॥
कबिरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर॥
यह तन विष की बेल री, गरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़त खोट।
भीतर से अवलम्ब है, ऊपर मारत चोट॥
जा के गुरु है आंधरा, चेला निपट निरंध।
अंधे अंधा ठेलिया, दोना कूप परंत॥
कबीर जोगी जगत गुरु, तजै जगत की आस।
जो जग की आसा करै, तो जगत गुरू वह दास॥
6 comments:
bahut sundar prastuti.
सुन्दर संदर्भ।
बहुत सुंदर जी, धन्यवाद
आदरणीय
जी.के. अवधिया जी
नमस्कार
शोध का परिणाम और गुरु के प्रति सम्मान ...बहुत बहुत आभार
कभी "चलते -चलते" पर भी अपनी नजर- ए- इनायत करना
शुक्रिया
सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद।
बहुत सुंदर !
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