महमूद ने गुजरात पर चढ़ाई तो अवश्य की और सोमनाथ को भंग भी किया, गुजरात और सोमनाथ को लूटा भी, फिर भी उसने अपनी सत्ता हिन्द में स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उसने बहुत-से प्रदेशों को सर किया, फिर भी उनमें सूबाओं द्वारा अपनी सत्ता जमाने का उद्योग नहीं किया। वह एक साहसी योद्धा अवश्य था, परन्तु उसे साम्राज्य का शौक नहीं लगा, उसे तो सम्पत्ति की ही भूख थी। और यही कारण था कि सोमनाथ के पराभव होने के बाद गुजरात पर ऐसी भयानक विपत्ति आकने पर भी समग्र गुजरात के जीवन का प्रवाह महमूद की पीठ फेरते ही पूर्ववत चलता रहा। यह एक बड़े ही आश्चर्य का विषय था। वास्तव में वह युग ही दूसरा था। महमूद जिस ऊजड़ प्रदेश में रहता था, वहाँ अनन्त भू-विस्तार उसके अधीन था। इसलिए उसे धरती की भूख नहीं थी। अमर कीर्ति की लालसा थी - धन का लोभ था।
कुछ इतिहासकार महमूद को धर्मान्ध कहते हैं। और उनका कहना यह है कि उसने सोमनाथ की मूर्ति भंग करने के लिए ही यह जिहाद का झण्डा उठाया था, परन्तु कुछ इतिहासकार उसे लुटेरा कहते हैं। सम्भवतः दोनों ही बातों में सत्य हो, और इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर महमूद ने ऐसे भारी-भारी अभियान किए हों। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि महमूद के दुस्साहस में उसकी प्रजा का पूरा-पूरा हाथ था। महमूद बादशा था, फिर भी प्रजा का सेवक था। यह जमाना वोटोक्रेसी अथवा मिलिटरी डिक्टेटरशिप का था। परन्तु राज्य का कारोबार डेमोक्रेसी पद्धति पर चलता था। आज डेमोक्रेसी का युग है, पर कार बार सब डिक्टेटरशिप की रीति पर चलते हैं। स्टालिन की सोवियत सरकार तो यह कहती रही कि स्वातन्त्र्य के लिए ही यह डिक्टेटरशिप है।
महमूद का यह युग गज़नी की ज़ाहोज़लाली, राजा और प्रजा के प्रेम, मुसलमानों की साहसप्रियता, भारतीय क्षत्रियों के अनैक्य तथा विजि प्रजा के साथ महमूद की उदारता और मूर्ति-पूजा का विकृत रूप प्रकट करता है।
ऐतिहासिक आधार पर नीचे लिखी बातें प्रमाणित हैं -
- ईस्वी सन् 1025 में महमूद ने आक्रमण किया।
- क्षत्रिय राजाओं के भय से उसे मरुस्थली की राह से आना पड़ा।
- रास्ते में गुर्जरेश्वर भीम के भय से उसे कच्छ के महारन से वापस जाना पड़ा।
- उसने सोमनाथ का मन्दिर तोड़ा।
- वह आया और चला गया। किन्तु गुजरात का राजकीय, सामाजिक और धार्मिक जीवन अभंग ही रहा। इस आक्रमण को इतना तुच्छ समझा गया कि हेमचन्द्र, सोमेश्वर और मेरुतुंग-जैसे इतिहासकारों ने उसकी कहीं चर्चा तक नहीं की।
- गुजरात की सत्ता और समृद्धि में कुछ भी कमी न आई, क्योंकि उसके सात ही वर्ष बाद 1032 में मन्त्रीश्वर विमलदेवशाह ने आबू पर आदिनाथ का मन्दिर बनवाया, जिसमें अठारह करोड़ रुपए खर्च हुए।
सोमनाथ के विनाश और जीर्णोद्धार का विवरण श्री अमृतलाल पाण्ड्या ने इस प्रकार दिया है -
विनाशः- | जीर्णोद्धारः- |
महमूद गज़नवी ईस्वी सन् 1024 | भीमदेव प्रथम, ईस्वी सन् 1026 कुमारपाल, ईस्वी सन् 1196 |
अलफ खान, ईस्वी सन् 1297 अहमदशाह, ईस्वी सन् 1314 शम्सखान, ईस्वी सन् 1318 | महीपाल, ईस्वी सन् 1325 |
मुजफ्फरखान दूसरा, ईस्वी सन् 1394 तातारखान, ईस्वी सन् 1520 औरंगजेब मारफत, ईस्वी सन् 1706 | अहिल्याबाई होल्कर, ईस्वी सन् 1765 |
इस प्रकार एक के बाद दूसरा आक्रमणकारी आता गया जाता गया, और सोमनाथदेव अपना चोला बदलता गया। वे सब आक्रमणकारी आज नहीं रहे, परन्तु देवाधिदेव सोमनाथ आज भी उसी स्थान पर सुप्रतिष्ठित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आज के दिन सुपूजित इतना प्राचीन देवता कोई दूसरा नहीं है।
(सामग्री आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)
6 comments:
सार्थक निष्कर्षों का प्रस्तुतिकरण।
प्रस्तूत एतिहासिक प्रमाण स्थापित सत्य है।
यह लेख पढना अच्छा लगा।
रोचक ऐतिहासिक जानकारी।
यह लेख पढना अच्छा लगा।
महत्वपूर्ण एतिहासिक जानकारी.
लेकिन हिन्दुओं ने कभी भी सीख नहीं ली इस सबके बावजूद..
महमूद एक लूटेरा था, ओर हम ताकत वर होते हुये भी कमजोर ओर डरपोक बने हुये थे, जो उस का सामना करने की स्थान पर मंदिर मे जा कर उस मुर्ति से अपने बचाव की प्राथना कर रहे थे जो मुर्ति हमारे पंडितो ने चुम्बक की साहायता से मंदिर के बीच मे हवा मे लटका रखी थी, ओर लोगो मे विशवास जगा दिया कि यह भगवान हम सब की मदद करेगा, ओर वो लूटेरा हमे लूट कर ले गया लेकिन हमे अकल आज तक नही आई, मुशिबत के समय आज भी हम कर्म करने की जगह मन्न्ते ही मांगते हे,
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