Monday, January 31, 2011

वैदिक साहित्य के विषय में कुछ जानकारी

वेद शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के "विद्" शब्द से हुई है जिसका अर्थ है "ज्ञान"। अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति उसे ही वेद कहते हैं। पारम्परिक रूप से वे को शाश्वत सत्य ज्ञान के पवित्र एवं गूढ़ सूत्रों, जिन्हें कि ऋषियों ने गहन चिन्तन के परिणामस्वरूप प्राप्त किया था, का विशाल भण्डार माना जाता है। हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी, शिष्यों के द्वारा वेद में निहित ज्ञान को गुरु के मुख से सुनकर ही प्राप्त करने की परम्परा रही है इसलिए वेद को "श्रुति" (सुना गया) के नाम से भी जाना जाता है।

वेदों की संख्या चार हैं - ऋग् वेद, यजुर्वेद, साम वेद और अथर्व वेद। परम्परागत रूप से वेद दो भागों - मंत्र और ब्राह्मण - में विभाजित किए जाते रहे हैं। संहिता अपने वेदों के नाम से ही जाने जाते हैं वेदों के मंत्रों के संकलन को संहिता के नाम से जाना जाता है जैसे कि ऋग् वेद के मंत्रों के संकलन को "ऋग् वेद संहिता" कहा जाता है। ब्राह्मण वेदों पर आधारित व्याख्यात्मक ग्रंथ हैं और उनके अपने अलग अलग नाम हैं। अनेक ब्राह्मण ग्रंथों के अन्तिम भाग में गूढ़ सामग्री पाई जाती है जिन्हें "अरण्यक" कहा जाता है। "अरण्यक" में निहित गूढ़ सामग्री "उपनिषद्" के नाम से जाने जाते हैं। अनेक शताब्दियों से उपनिषद् हिन्दू आध्यात्मिक परम्परा के मुख्य आधार रहे हैं और इन्हें सर्वोच्च सम्मान मिलता रहा है।

ऋग् वेद, साम वेद और अथर्व वेद में स्पष्ट रूप से उनके दो भाग मिलते हैं जिनमें एक में मंत्रों का और दूसरे में ब्राह्मणों का संकलन है। इसके विपरीत यजुर्वेद दो प्रकार के हैं जिन्हें शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद के नाम से जाना जाता है, शुक्ल यजुर्वेद में तो मंत्रों और ब्राह्मणों का संकलन दो अलग अलग भागों में है किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मंत्र और ब्राह्मण एक साथ मिले हुए हैं। कृष्ण यजुर्वेद के "तैत्तरीय संहिता" और "तैत्तरीय ब्राह्मण" दोनों में ही मंत्र और ब्राह्मण एक साथ मिले हुए हैं। वेद में निहित ज्ञान को प्रायोगिक रूप से सार्थक बनाने के लिए अन्य सहायक ग्रंथ भी हैं जो सूत्र के नाम से जाने जाते हैं यथा श्रौतसूत्र, कल्पसूत्र, शुल्बसूत्र इत्यादि। इसके अतिरिक्त वेद के ज्ञान का अध्ययन करके विभिन्न महान ऋषि-मुनियों ने भी अलग अलग संहिताओं की रचना की है यथा चरक संहिता, अगस्त्य संहिता आदि।


हमारे प्रायः समस्त वैदिक साहित्य का विभिन्न भाषाओं में, विशेषकर अंग्रेजी भाषा में, अनुवाद बहुत पहले, अठारहवीं शताब्दी के अन्त या उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हो चुका था और उनपर शोध आज तक सतत् जारी हैं। विदेशी विद्वान आज भी वैदिक साहित्य में ज्ञान के शोध में रत हैं किन्तु विडम्बना यह है कि हमारे देश में ही हमारे वैदिक साहित्य का विशेष महत्व नहीं है क्योंकि हमारे देश में संस्कृत और हिन्दी जैसी हमारी अपनी भाषा की अपेक्षा अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को अधिक महत्व दिया जाता है। हमारे कथन का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि विदेशी भाषाओं का महत्व कुछ भी नहीं है, हमारे विचार से तो सभी भाषाएँ महान हैं और सभी भाषाओं का अपना-अपना महत्व है, हमें सभी भाषाओं को अवश्य ही सीखना चाहिए किन्तु स्वाभिमानी होने के नाते अपनी भाषा को अपेक्षाकृत अधिक श्रेष्ठ मानना ही उचित है।

5 comments:

Rahul Singh said...

''स्वाभिमानी होने के नाते अपनी भाषा को अपेक्षाकृत अधिक श्रेष्ठ मानना ही उचित है।'' लेकिन इससे भी अधिक जरूरी अपनी भाषा (वैदिक और लोकिक संस्‍कृत, जिसे सीखने में विदेशी पर्याप्‍त रुचि लेते हैं)सीखना है.

सुज्ञ said...

हमारा अपने जीवनमूल्यो के प्रति जाग्रत रहना आवश्यक है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हम सब कुछ भूल चुके हैं..

प्रवीण पाण्डेय said...

आपके विषय सदा ही पढ़ने योग्य होते हैं और जब बात संस्कृति की हो तो और भी रोचक।

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जानकारी जी धन्यवाद