Friday, April 22, 2011

हे पृथ्वी! हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो!

पृथ्वी दिवस पर विशेष

दिवस मनाने की आजकल परम्परा चल पड़ी है। शायद इस परम्परा का कारण यह है कि जिन्हें हम हृदय में बसाये रखा करते थे उन्हें अब हमने भुला दिया है तथा यह सोचकर कि वर्ष में कम से कम एक दिन उन्हें याद कर लें उनके नाम पर दिवस मनाना शुरू कर दिया है जैसे कि मातृ दिवस, पितृ दिवस आदि। किसी को कभी याद न करने से यही अच्छा है कि उसे कम से कम साल में एक दिन तो याद कर लिया जाए, लोकोक्ति भी है - "नहीं मामा से काना मामा अच्छा"!

दिवस मनाने के इसी परम्परा के अन्तर्गत आज पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है। भले ही हम वर्षपर्यन्त खनिज प्राप्त करने के लिए भूमि और पर्वतों को खोदने का कार्य करते रहें, वनों को काटते रहें, सरिताओं के स्वच्छ जल में कल-कारखानों यहाँ तक कि मद्यनिष्कर्षशाला याने कि दारू भट्टी तक से भी निकली हुई गंदगी को मिलाते रहें और अपने इन कार्यों से पृथ्वी के सौन्दर्य को नष्ट करते रहें किन्तु वर्ष में एक दिन उसी पृथ्वी के सौन्दर्य को बढ़ाने और पर्यावरण की रक्षा करने की बात करना भी तो हमारा नैतिक कर्तव्य है! तो क्यों न पृथ्वी दिवस मनाया लिया जाए! भले ही हम प्रकृति, जिसका पृथ्वी भी एक महत्वपूर्ण अंग है, से सदैव प्राप्ति की आशा करते रहें, वर्ष में कम से कम एक दिन उसके सन्तुलन के विषय में कुछ सोचना भी तो हमारा कर्तव्य है।

पृथ्वी अर्थात् -

पृथवी, पृथिवी, भूमि, भूमी, अचला, अनन्ता, रसा, विश्वम्भरा, स्थिरा, धरा, धरित्री, धरणी, धरणि,  वसुमती, वसुधा, वुसंधरा, अवनि, अवनी, मही, विपुला, रत्नगर्भा, जगती, सागराम्बरा, उर्वी, गोत्रा, क्ष्मा क्षमा, मेदिनी, गह्वरी, धात्री, गौरिला, कुम्भिनी, भूतधात्री, क्षोणी, क्षोणि, काश्यपी, क्षिति, सर्वेसृहा!

क्या कभी आपने विचार भी किया है कि उषाकाल में आकाश की लालिमा, रक्तवर्ण सूर्य का उदय, लता-विटपों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद के साथ प्रवाहित होना, गगनचुम्बी पर्वतमालाओं का सौन्दर्य जैसी प्राकृतिक दृश्य एवं प्राकृतिक क्रिया-कलाप ने ही तो मनुष्य के भीतर जीवनपर्यन्त भावनाएँ तथा संवेदनाएँ उत्पन्न करके उसे महान कलाकार, महान कवि, महान विचारक बनाया है।

भूमि, सर, सरोवर, नद्, पर्वत आदि से प्राप्त भावनाओं और संवेदनाओं ने ही तो वनवास के समय राम के मुँह से अनायास ही कहलवाया था -

"हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है।"


यह पृथ्वी और प्रकृति ही तो है जो -

"सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥"

मैथिलीशरण गुप्त (पंचवटी)

चलिए, एक दिन के लिए ही सही किन्तु पूरे लगन और समर्पण भाव से यदि हम एक अरब पन्द्रह करोड़ भारतवासी पृथ्वी तथा प्रकृति के विषय में सिर्फ कुछ सोचने के बजाय कुछ सार्थक कार्य करने की ठान लें तो आज भी हमारे देश का पर्यावरण देश को प्रचुर मात्रा में शुद्ध जल, शुद्ध वायु, हरे-भरे वन आदि प्राकृतिक सम्पदा प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ हो सकता है और हमारा में पुनः दूध-दही की नदियाँ बह सकती हैं, हमारा देश फिर से विश्व भर में "सोने की चिड़िया" के नाम से विख्यात हो सकता है!

4 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

तुरन्त बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने के लिये कुछ सकारात्मक और कुछ दांडिक व्यवस्था की जाये..

VICHAAR SHOONYA said...

दिवस मनाने की आजकल परम्परा चल पड़ी है। शायद इस परम्परा का कारण यह है कि जिन्हें हम हृदय में बसाये रखा करते थे उन्हें अब हमने भुला दिया है तथा यह सोचकर कि वर्ष में कम से कम एक दिन उन्हें याद कर लें उनके नाम पर दिवस मनाना शुरू कर दिया है जैसे कि मातृ दिवस, पितृ दिवस आदि। किसी को कभी याद न करने से यही अच्छा है कि उसे कम से कम साल में एक दिन तो याद कर लिया जाए, लोकोक्ति भी है - "नहीं मामा से काना मामा अच्छा"!










अवधिया साहब ठीक इन्ही भावों का उपयोग मैं तब किया था जब मेरे एक मित्र ने मुझसे पूछा की कुमाउनी लोगों में करवा चौथ व्रत करने का रिवाज क्यों नहीं है. अच्छा लेखा.

प्रवीण पाण्डेय said...

मातृत्व इसी को कहते हैं।

Rahul Singh said...

प्रासंगिक पठनीय बढि़या पोस्‍ट.