Thursday, January 22, 2015

चंद शेर


तुम्हें गैरों से कब फुरसत हम अपने ग़म से कब खाली
चलो बस हो गया मिलना ना तुम खाली ना हम खाली

अंदाज अपना देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो

उधर ज़ुल्फों में कंघी हो रही है, खम निकलता है
इधर रुक रुक के खिच खिच के हमारा दम निकलता है
इलाही खैर हो, उलझन पे उलझन बढ़ती जाती है
ना उनका खम निकलता है, ना हमारा दम निकलता है

कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे

दर्द-ओ-ग़म का ना रहा नाम तेरे आने से
दिल को क्या आ गया आराम तेरे आने से

हमको किसके ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फिर सही
दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने
नाम आएगा तुम्हारा, ये कहानी फिर सही

कि तू भी याद  नहीं आता ये तो होना था
गए दिनों को सभी को भुलाना होता है

आदमी आदमी को क्या देगा, जो भी देगा वही खुदा देगा
जिंदगी को क़रीब से देखो, इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा

अपने मंसूबों को नाकाम नहीं करना है
मुझको इस उम्र में आराम नहीं करना है

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