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Saturday, December 19, 2009

जब हम हर्बल सिगरेट पीते थे ... कुछ यादें बचपन की ...

हर्बल सिगरेट! याने कि कद्दू की सूखी हुई बेल का टुकड़ा जिसे सिगरेट की तरह जला कर हम धूम्रपान का मजा लिया करते थे बचपन में। बहुत मजा आता था मुँह और नाक से धुआँ निकालने में। दस-बारह साल उमर थी तब हमारी याने कि ये बात लगभग 48-50 साल पुरानी है। सूखे हुए चरौटे के पौधों को उखाड़ कर उसका "भुर्री जलाना" याने कि अलाव जलाना और "भुर्री तापना" याने कि आग तापना! कद्दू की सूखी हुई लंबी बेल तोड़ कर लाना और हम सभी बच्चों के द्वारा "भुर्री तापते" हुए उस बेल के टुकड़ों वाला सिगरेट पीना।

ऐसा नहीं है कि कोई साइकियाट्रिस्ट ही किसी आदमी को उसके उम्र के पीछे ले जा सके। कभी-कभी आदमी खुद ही अपनी उम्र के पीछे चला जाता है तो कभी प्रकृति, वातावरण, विशेष दृश्य आदि उसे अपनी उम्र के पीछे ले जाते हैं। आज सुबह रायपुर में बहुत ज्यादा कुहासा था। कई साल बाद ऐसा कुहासा देखने को मिला रायपुर में। आठ दस फुट की दूरी की चीज नहीं दिखाई पड़ रही थी। साँस छोड़ते थे तो भाप निकलता था और मुँह खोलते थे तो भाप निकलता था। छत में पहुँचे तो लगा कि बादलों के बीच में आ गये हैं। ऐसा लग रहा था मानो हम मैदानी इलाके में न होकर किसी हिल स्टेशन में पहुँच गये हों।

बस इस दृश्य ने हमें अपनी उम्र के पीछे धकेलना शुरू कर दिया। याद आया कि कुछ समय पहले हम मसूरी गये थे तो ऐसे भी बादलों के बीच घिरे थे। फिर और दस बारह साल पहले चले गये हम जब बद्रीनाथ जाते समय जोशीमठ में कुहासे से घिर गये थे। जोशीमठ में तो लगता था कि हमारे ऊपर बादल हैं, हम बादलों के बीच में हैं और हमारे नीचे घाटी में भी बादल है।

फिर पीछे जाते-जाते अपने बचपन तक पहुँच गये हम। क्या ठंड पड़ती थी उन दिनों रायपुर में हर साल। अब तो हमारे यहाँ ठंड पड़ती ही नहीं। आदमियों और इमारतों का जंगल बन कर रह गया है अब रायपुर। तो ठंड कैसे पड़ेगी? बचपन में कहाँ थीं इतनी सारी इमारतें? घर से एकाध मील दूर निकलते ही खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता था। खेतों में तिवरा और अलसी लहलहाते थे और मेढ़ों में अरहर लगे होते थे ठंड के दिनों में। तिवरा उखाड़ लाया करते थे खेतों से और उसे कभी कच्चा तो कभी जलते "भुर्री" में डाल कर "होर्रा" बना कर खाते थे।

मन को कितना मोहता है यह ठंड का मौसम! गरम कपड़ों से लिपटे, आग तापते हुए, आपस में गप शप करना, धूप सेंकना आदि कितना अच्छा लगता है। वसन्त ऋतु की अपनी अलग मादकता है तो शरद् और हेमन्त ऋतुओं का अपना अलग सुख है। श्री रामचन्द्र जी की भी प्रिय ऋतु रही है यह हेमन्त ऋतु! तभी तो आदिकवि श्री वाल्मीकि लिखते हैं:

सरिता के तट पर पहुँचने पर लक्ष्मण को ध्यान आया कि हेमन्त ऋतु रामचन्द्र जी की सबसे प्रिय ऋतु रही है। वे तट पर घड़े को रख कर बोले, "भैया! यह वही हेमन्त काल है जो आपको सर्वाधिक प्रिय रही है। आप इस ऋतु को वर्ष का आभूषण कहा करते थे। अब शीत अपने चरमावस्था में पहुँच चुकी है। सूर्य की किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है। गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं। राजा-महाराजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाएँ लेकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये निकल पड़े हैं। सूर्य के दक्षिणायन हो जाने के कारण उत्तर दिशा की शोभा समाप्त हो गई है। अग्नि की उष्मा प्रिय लगने लगा है। रात्रियाँ हिम जैसी शीतल हो गई हैं। जौ और गेहूँ से भरे खेतों में ओस के बिन्दु मोतियों की भाँति चमक रहे हैं। ओस के जल से भीगी हुई रेत पैरों को घायल कर रही है। ...

आप लोगो को भी जरूर ही अच्छा लगता होगा यह ठंड का मौसम!