Sunday, September 30, 2007

धान के देश में - 22

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 22 -

मालगुजार दीनदयाल खुड़मुड़ी मे ही अधिकतर रहते थे, उनका स्वभाव ही औरों से निराला था। किसानों के प्रति उनके हृदय मे दया थी। जब कभी किसी दूसरे गांव के किसानों पर वहाँ के मालगुजार द्वारा होने वाले अन्याय और अत्याचार का समाचार उनके पास पँहुचता तो वे क्षुब्ध हो जाते थे। उनकी दृष्टि मे मानव मे कोई भेद नहीं था। वे सदा गीता का स्वाध्याय करते थे और उसमे बताये अनुसार चलते भी थे। यही कारण था कि जब राजवती ने उनकी शरण ली तब उन्होंने उसके और उसके बच्चों के प्रति इतना कुछ किया जो उस समय के मालगुजारों के लिये सर्वथा असम्भव था। श्यामलाल की मृत्यु ने उन्हे और भी गम्भीर, सहनशील, शान्त और उदार बना दिया था।
उस दिन दीनदयाल तालाब से नहाकर जब वापस आये तब उन्हें असह्य जाड़े का अनुभव हुआ। मोटी रजाई और ऊनी दुशाला ओढ़ लेने पर भी उनकी कँपकँपी दूर नहीं हुई। दोपहर होते न होते उन्हें भीषण ज्वर आ गया। आँखें लाल हो गईं। शरीर तवे की भाँति गरम था। तृषा अधिक थी। बेचैनी भी कुछ कम न थी। शाम को उनके दोनों नेत्रों से लगातार आँसू बहने लगे। सुमित्रा दिन भर उनकी सेवा में लगी रही। उसे धीरज न रहा। वह फूट फूट कर रोने लगी। दीनदयाल का ध्यान उस समय उसकी ओर नहीं था। वे आँखें मूँदे चपचाप पड़े थे। तो भी उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बरस रही थी। सुमित्रा को पति का सुख कम मिला था। वह अपने बेटे महेन्द्र और पिता-तुल्य ससुर दीनदयाल के सहारे जी रही थी। आज वही दीनदयाल बीमार थे।

दीनदयाल ने आँखें खोलीं। उनकी दृष्टि सुमित्रा के मुख पर पड़ी। उसे रोती देखकर वे बोले, "बहू, यह क्या कर रही हो।" उनका केवल इतना कहना ही पर्याप्त था। सुमित्रा ने बरबस आँचल से अपने आँसू पोछ लिये और उनकी सेवा-सुश्रूषा में लग गई।
गाँव भर में दीनदयाल की तबियत खराब होने का समाचार फैल गया। लोग उनके आँगन में जमा हो गये। गाँव का बैगा भी आया। यद्यपि उसे मंत्र-तंत्र पर अधिक विश्वास था तो भी वह ज्वर तथा अन्य व्याधियों के बीच अन्तर देखने की शक्ति रखता था। उसे कुछ औषधियाँ भी मालूम थीं। जड़ी-बूटी से वह लोगों का इलाज भी करता था पर झाड़-फूँक ही के पक्ष में अधिक था। सभी लोग एक एक कर दीनदयाल लके पास जाकर उसकी तबियत के बारे में पूछ रहे थे। प्रत्येक पूछने वाले से वे केवल यही कहते थे, "अभी कुछ ठीक है" पर उनकी आवाज में भर्राहट थी।
गाँव के बूढ़े और अनुभवी लोगों को विशेष चिन्ता हो गई। बैगा से रहा न गया और वह दीनदयाल की खाट के पास आकर बोला, "मालिक, मैं कुछ कहूँ तो छोटा मुँह बड़ी बात होगी लेकिन कहे बिना मुझसे रहा भी तो नहीं जाता। मैं जानता हूँ कि आपको मेरे मंत्र-तंत्रों पर अधिक विश्वास नहीं है, अब मैं कैसे कहूँ कि मैं आपको जड़ी-बूटी दूँ। अगर आप कहें तो........." आगे वह कुछ न बोल सका। उसका गला भर आया और आँखें डबडबा गईं। साथ ही आँसू की दो बून्दें भी टपक गईं। दीनदयाल यह सब देख रहे थे और बैगा की श्रद्धा देखकर व्याकुल होते हुये भी वे शान्ति का अनुभव करने लगे। उन्होंने कहा, "बैगा, मैं तुम्हारी बातों को समझ रहा हूँ मैं तुम्हें रोकूँगा नहीं। कुछ दवा दोगे तो मैं इन्कार करने वाला थोड़े ही हूँ।"
बैगा ने एक लड़के को साथ लिया। उसके हाथ में लालटेन थी। दो-तीन अंधेरी गलियों को पार कर वे बैगा के घर पहुँचे। बैगा अपने पूजा-पाठ वाले कमरे में गया। वहाँ का दृश्य ही बड़ा अद्भुत था। छत पर मनुष्यों की पाँच-सात खोपड़ियाँ लटक रहीं थीं। एक कोने में एक खोपड़ी रखी थी जिस पर गाढ़ा सिन्दूर लगा था। उसके बाजू दो खड़ाऊ रखे थे जिसके ऊपरी भाग पर अनेकों नुकीले खीले गड़े थे। वर्ष में दो बार नवरात्रि के अवसर पर बैगा उन्हें पहन कर 'जँवारा' में, देवी के अपने शरीर में प्रवेश करने पर, उन्मत्त होकर नाचता था। पास ही काँटेदार संकल भी रखी थी जिससे वह 'देवता चढ़ने' या देवी के शरीर में प्रवेश के अवसर पर अपना शरीर पीटता था। कोने में एक टेढ़ी-मेढ़ी लाठी रखी थी जिसके ऊपरी भाग में प्रकृति ने ही मुँह का आकार बना दिया था। लाठी पर भी गाढ़ा सिन्दूर लगा था।
बैगा ने एक थैली से जड़ी-बूटी निकाली और उसे लेकर उस लड़के के साथ दीनदयाल के घर आया और उन्हें दवा दी जिसे दीनदयाल ने खा लिया। लगभग पन्द्र मिनट बाद ही उन्हें बेचैनी कुछ कम होती हुई मालूम हुई। थोड़ी ही देर में नींद आ गई। एक एक कर लोग चले गये। केवल बैगा रह तहा। वह सुमित्रा से बोला, "मालकिन, मुझे इनका बुखार साधारण मालूम नहीं होता। पर आप घबराइये नहीं। मैं कोटवार को लेकर आता हूँ हम लोग रात भर जाग कर मालिक की देख-रेख करेंगे।"
"नौकर लोग भी आने वाले हैं।" सुमित्रा बोली।
"आने दीजिये।" जितने ज्यादा आदमी रहेंगे उतनी ही आसानी से रात कटेगी। मैं आधे घंटे में वापस आता हूँ।" कह कर बैगा भी चला गया।
दीनदयाल के घर से निकल कर बैगा सीधा अपने घर गया। वहाँ से कुछ कंडे और हवन का सामान लेकर गाँव के बाहर की ओर गया। सीमा पर आठ-दस पत्थर गड़े थे जो 'ग्राम देवता' माने जाते थे। वहाँ पहुँच कर बैगा ने चकमक पत्थर से कंडों की आग जलाई। जब आग धधकने लगी तब उसने उसमें हवन की सामग्री डाल दी। फिर मंत्र पढ़ कर दोनों हाथ जोड़ उसने ग्राम देवता से प्रार्थना की, "हे देवता, हमारे मालिक की रक्षा करना।" एक दूसरे कंडे में जलती हुई आग लेकर बैगा 'माता देवाला' (मातृ देवालय) गया जहाँ देवी के सामने भी वही क्रिया और प्रार्थना की। फिर सीधे दीनदयाल के घर की ओर चला। रास्ते में भुलउ कोटवार का घर पड़ता था। उसे पुकारा पर पता लगा कि वह मालगुजार के घर चला गया है। वह भी वहीं पहुँचा।
दीनदयाल सो रहे थे। शायद जड़ी-बूटी का असर हो। बीच-बीच में बेसुधी में ही करवट बदल लेते थे। उनका बुखार तेज था। नौकर , कोटवार, बैगा सभी जाग रहे थे। सुमित्रा की आँखों से नींद उड़ गई थी। उसने पलकों में रात काटी। उसे महेन्द्र की बहुत याद आ रही थी, वह यहाँ होता तो...।
सबेरा हुआ। दीनदयाल ने आँखें खोलीं। सामने सुमित्रा बैठी थी। उसे देखकर दीनदयाल बोले, "बहू, तुम रात भर जागती रही हो। देखो कहीं तुम्हारी तबियत खराब न हो जाय।"
"मुझे कुछ नहीं होगा।" सुमित्रा ने उत्तर दिय।। ससुर को कुछ स्वस्थ-सा देख और दिन के प्रकाश में जीवन का सन्देश पा सुमित्रा का चित्त कुछ शान्त हो गया था। दीनदयाल का बुखार कम अवश्य हो गया था पर दूर नहीं हुआ था। उन्हें एकदम शिथिलता मालूम हो रही थी। वे बोले, "बहू, मुझे रायपुर ले चलो। वहाँ नाते-रिश्ते के लोग हैं, सब ठीक हो जावेगा।"
"मैं अभी प्रबंध करती हूँ। वहाँ अस्पताल है। ठीक इलाज हो सकेगा।" सुमित्रा बोली और उसकी बात से दीनदयाल के ओठों पर सूखी मुसकान खेल गई।
बात की बात में रायपुर जाने का प्रबंध हो गया। प्रस्थान करने वाले ही थे कि सिकोला से पण्डित शिवसहाय और दुर्गाप्रसाद भी आ पहुँचे। उन्हें दीनदयाल की बीमारी का पता एक आदमी से लग गया था जो पिछले दिन खुड़मुड़ी आया था। उन दोनों ने भी अपनी रायपुर जाने की इच्छा व्यक्त की।
दीनदयाल को 'मचोली' कहलाने वाली पालकी में लिटा कर रायपुर के लिये प्रस्थान किया गया। साथ में सुमित्रा, बैगा, दुर्गाप्रसाद और पण्डित शिवसहाय भी थे।
रायपुर पहुँच कर दीनदयाल का इलाज होने लगा। सदाराम और महेन्द्र के नागपुर चले जाने के बाद राजवती रायपुर में ही अपने एक रिश्तेदार के घर रहती थी। दीनदयाल की बीमारी की सूचना उसे मिली और वह उनके घर आ कर उनकी सेवा में दिन-रात एक करने लगी। थोड़े ही दिनों में दीनदयाल स्वस्थ-से हो गये पर उनका स्वास्थ्य-लाभ बुझने वाले दीपक की ज्योति की भाँति था। एक दिन दीनदयाल को ऐसा लगा कि अब उनका अन्तिम समय दूर नहीं है। तब उन्होनें महेन्द्र और सदाराम को नागपुर से बुलवाने के लिये कहा। तुरन्त तार भेजा गया जिसे पा कर वे दोनों इतवारी से लौटने के बाद रवाना हो गये थे।
घर आते ही दीनदयाल की दशा देख महेन्द्र धीरज खो कर रोने लगा। दीनदयाल ने उसे समझाया पर उसे धैर्य कहाँ। सदाराम भी कम दुखी नही था। दोनों एकांत में जी भर कर रो लेते थे।
एक दिन दीनदयाल ने सब लोगों को इकट्ठा किया। फिर जमीन को गोबर से लीपने के लिये कहा। सभी की आँखों में आँसू थे। राजवती ने धरती लीप दी। उस पर चटाई बिछा दी गई। महेन्द्र और सुमित्रा के सहारे दीनदयाल स्वयं खाट के नीचे आ गये और उत्तर की ओर सिर तथा दक्षिण की ओर पैर कर चटाई पर लेट गये। यह देख कर सब हाहाकार कर उठे। रोना पीटना और कुहराम मच गया। क्रन्दन से घर का कोना कोना काँप उठा। क्षीण स्वर में दीनदयाल बोले "अभी तो मैं मरा नहीं हूँ। तुम लोग विलाप क्यों कर रहे हो! मेरी यह देह ही तो छूट जावेगी न! मैं तो नहीं मरूँगा।" गीता का यह तत्व समझने की बुद्धि शोकाकुल लोगों में कहाँ थी! स्वयं पंडित शिवसहाय भी अपने गुमनामी दुपट्टे से अपनी भोली आँखे पोंछ रहे थे। उन्हें देख कर दीनदयाल बोले, "पंडित जी, आप भी अपना कर्तव्य भूल रहे हैं! सुमित्रा को मेरे मुँह में लगातार तुलसी और गंगाजल डालते रहने के लिये कहिये और आप मुझे गीता के श्लोक सुनाते रहिये।" वैसा ही किया गया जैसा उन्होंने चाहा। उनकी श्वास लम्बी और गहरी होती जा रही थी। सहसा वे बोले, "कृष्ण जी का चित्र मेरी आंखों के सामने रख दो" चित्र रखा गया। उसे वे अपलक नयनों से देखने के हृदय रो रहे थे आज्ञा थी कि कोई भी एक बूंद भी आँसू न बहाये नही तो उन्हें कष्ट होगा।
बारह बजे थे। दीनदयाल के गले में कफ की मात्रा बढ़ती जा रही थी जिससे गला घर्रा रहा था। वे आँखो को कृष्ण जी के चित्र पर गड़ाये हुये थे। सहसा उन्होंने "कृष्ण चन्द्र की जय" कहा और चिर शान्ति तथा मुक्ति पा गये। उनकी लाश से लिपट लिपट कर महेन्द्र रोने लगा। सुमित्रा पछाड़ खा कर गिर पड़ी। राजवती बेसुध हो गई। सदाराम सिसकियाँ भर भर कर रो रहा था। दुर्गाप्रसाद और शिवसहाय दोनों आँखो से आँसू बहाते हुये एकटक दीनदयाल से चिर शान्त तथा मरने के बाद भी ज्योतिमय मुख मण्डल को देख रहे थे। शिवसहाय ने थोड़ी देर में महेन्द्र को सझाया और कहा, "देखो, तुम्हारे दादा को वह परम गति प्राप्त हुई है जो योगियों को भी कठिनाई से मिलती है। धीरज धारण करो और अन्त्येष्टि की तैयारी करो"।
*****
दीनदयाल के चले आने के बाद महेन्द्र को सारा संसार सूना सूना सा लगता था। वह बार बार सोचता था कि यह क्या हो गया जो कभी सोचा भी नहीं था! घर का सारा बोझ सुमित्रा के कन्धों पर आ पड़ा। वह खुड़मुड़ी वापस चली गई। राजो उसी के पास रहने लगी। वह रात दिन आँसू बहाया करती थी। समय बड़ा बलवान है। माया का जंजाल धीरे धीरे कठोर वज्रपात के आघात में भी कमी कर देता है। ऐसा न होता तो संसार एक पल भी न चल सके!
(क्रमशः)

No comments: