Tuesday, December 30, 2008

बाप दादाओं की तस्वीरों को निकाल कर फेंक दो

"हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं।"

दिल खटास से भर गया है ऐसी बात पढ़ कर।

फिर तो बाप दादाओं की तस्वीरों को भी निकाल कर फेंक दो। क्यों उन्हें कमरे में लगा रखा है, क्या आवश्यकता रह गई है इन तस्वीरों की?

हिन्दी के प्राचीनतम रूप को अजायबघर में रख देने के बाद कौन सी हिन्दी का प्रयोग करोगे? अंग्रेजी शब्दों के सहारे जीवित रहने वाले खिचड़ी हिन्दी की? आज हिन्दी का सही ज्ञान ही लुप्तप्राय हो चुका है। दिल्ली जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्र के लोगों को गागर जैसे सामान्य शब्द का अर्थ नहीं पता है (देखें मेरा ये पोस्ट)। अपने अज्ञान को छुपाने का यह बहुत ही अच्छा तरीका है। स्वयं अपना ज्ञान बढ़ाने के बदले दूसरे सभी लोगों को अज्ञानी बना दो।

दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी चिट्ठा चर्चा की टिप्पणी के माध्यम से कहते हैं, "........ और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं. चन्द बरदाई, कबीर, तुलसी, सूर, बिहारी, केशव सब महान हैं, अपने युग में महत्वपूर्ण थे, लेकिन सामान्य हिन्दी के विद्यार्थी को उन्हें पढाने का क्या अर्थ है? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा आज आपकी ज़िन्दगी में कहां काम आएगी? मन्दाक्रांता, छन्द और किसम किसम के अलंकार आज कैसे प्रासंगिक हैं? अगर हम अपने विद्यार्थी को इन सब पारम्परिक चीज़ों के बोझ तले ही दबाये रखेंगे तो वह नई चीज़ें पढने का मौका कब और कैसे पाएगा?....."

भाई जब आप जानते हैं कि हमारे पाठ्यक्रम जड़ हैं तो क्या जरूरत थी आपको उसी जड़ पाठ्यक्रम को चालीस साल तक पढ़ाने की? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा ही वास्तविक हिन्दी भाषा है और यदि हम उस भाषा को समझ नहीं सकते, उनकी तरह लिख नहीं सकते तो इसमें उनकी भाषा का क्या दोष है? दोष है तो हमारी अज्ञानता का। मन्दाक्रांता, छन्द (आप हिन्दी पढ़ाते हैं किन्तु यह भी नहीं जानते कि मन्दाक्रांता छन्द का एक प्रकार है, छन्द जैसा काव्य का कोई अलग अवयव नहीं) और किसम किसम के अलंकार आज भी प्रासंगिक हैं किन्तु हममें अब वैसी काव्य रचने का सामर्थ्य नहीं रह गया है। उन महान कवियों ने हिन्दी को अलंकृत किया था, अब यदि हम हिन्दी को अलंकृत नहीं कर सकते तो क्या उसके वस्त्र भी उतार दें?

मैं ऐसी बातें लिखने से हमेशा परहेज करता हूँ जिनसे किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न हो। ऐसी बाते मुझे पसंद ही नहीं हैं। किन्तु आज इस पोस्ट को लिखने से मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। जानता हूँ कि क्या होगा। बहुत सारी विरोधी टिप्पणिया ही आयेंगी ना। आने दो। न तो मैं यहाँ पर जो अपने विचार लिख रहा हूँ वह मेरे विरोधी विचार वालों पर जबरदस्ती लद जाने वाला है और न ही विरोधी विचार वाली टिप्पणियाँ मुझ पर लदने वाली हैं।

4 comments:

सौरभ कुदेशिया said...

Main aapki baaton se puri tarah sehmat hu...Ped ki jade bhi to purani hoti hai par iska matlab yeh to nahi ki jado ko hi katkar fek diya jaye..

Badi sharamnaak baat hai ki hum khud hi apni kabar khushi khushi khod rahe hai,,

राज भाटिय़ा said...

बहुत सही लिखा है आप ने,
धन्यवाद

P.N. Subramanian said...

भाषा का चीर हरण तो हो ही रहा है. हम आप की बात से सहमत हैं. हमें नहीं लगता की विरोध में कोई टिप्पणी आएगी. आए तो आए अपनी बाला से.आप को और आपके परिवार को नव वर्ष मंगलमय हो.

Gyan Dutt Pandey said...

कालजयी साहित्यकार तो मानवता की धरोहर हैं - जैसे महान वैज्ञानिक लोग। उनका आदर और उनका पठन अपने चरित्र का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिये।