Monday, January 11, 2010

पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है

"नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!"

"नमस्काऽऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!"

"सुनाइये क्या चल रहा है?"

"चलना क्या है? अभी अभी एक पोस्ट लिखकर डाला है अपने ब्लॉग में और अब हम ब्लागवाणी पर अन्य मित्रों के पोस्टों को देख रहे हैं।"

"अच्छा यह बताइये लिख्खाड़ानन्द जी, आप इतने सारे पोस्ट लिख कैसे लेते हैं? भइ हम तो बड़ी मुश्किल से सिर्फ टिप्पणी ही लिख पाते हैं, कई बार तो कुछ सूझता ही नहीं तो सिर्फ nice , बहुत अच्छा, सुन्दर, बढ़िया लिखा है जैसा ही कुछ भी लिख देते हैं। पोस्ट लिखना तो सूझ ही नहीं पाता हमें।"

"अरे टिप्पण्यानन्द जी! पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है।"

"कैसे?"

"बताता हूँ पर पहले आप यह बताइये कि दया करना पुण्य और क्रोध करना पाप होता है कि नहीं?"

"जी हाँ, ऐसा ही है, बिल्कुल सही कह रहे हैं आप!"

"अब मान लीजिये कि आप कहीं जा रहे हैं और रास्ते में देखते हैं कि एक आदमी किसी मासूम बच्चे को पीट रहा है और बहुत से लोग चुपचाप देख रहे हैं। आपके पूछने पर लोग बताते हैं कि बच्चे को मारने वाला वह आदमी बच्चे से भीख मँगवाता है। आज बच्चे ने भीख में कुछ भी नहीँ लाया इसीलिये वह बच्चे को मार रहा है। ऐसे में आप क्या करेंगे? आप तो हट्टे-कट्टे आदमी हैं, क्या आप उस आदमी को छोड़ देंगे?"

"अजी, मैं तो फाड्डालूँगा स्साले को। मार मार कर कचूमर निकाल दूँगा। इतना मारूँगा स्साले को कि फिर कभी बच्चे को पीटना ही भूल जायेगा।"

"क्यों मारेंगे उसे आप? क्योंकि उस मासूम बच्चे पर दया आई आपको इसीलिये ना?"

"जी हाँ!"

"तो बच्चे पर दया करके आपने पुण्य किया कि नहीं?"

"बिल्कुल किया जी!"

"अच्छा अब बताइये उस आदमी को मारने के लिये क्रोध भी किया था ना आपने? बिना क्रोध किये तो किसी को मारा नहीं जा सकता!"

"हाँ जी, बहुत गुस्सा आया मुझे।"

"तो क्रोध करके आपने पाप किया कि नहीं?"

"अजी आप फँसाने वाली बात कर रहे हैं।"

"आप तो बस इतना बताइये कि क्रोध करके आपने पाप किया कि नहीं?"

"हाँ जी किया?"

"तो मुझे बताइये कि वास्तव में आपने क्या किया? दया किया कि क्रोध? पुण्य किया कि पाप?"

"अब मैं क्या बताऊँ जी! मेरा तो दिमाग ही घूम गया।"

"देखिये टिप्पण्यानन्द जी! वास्तव में आपने बच्चे पर दया किया किन्तु सिर्फ दया करके आप उस बच्चे को बचा नहीं सकते थे। उसे बचाने के लिये आपको बच्चे को उस दुष्ट आदमी से छुटकारा नहीं दिला सकते थे, बच्चे को उस जालिम से बचाने के लिये उसको मारना भी जरूरी था जो कि बिना क्रोध किये हो ही नहीं सकता। है कि नहीं?"

"जी, बिल्कुल!"

"तो इसका मतलब यह हुआ कि दया करने के लिये क्रोध का सहारा लेना जरूरी है। पुण्य करने के लिये पाप भी करना पड़ता है। पाप और पुण्य का एक दूसरे के बिना काम ही नहीं चल सकता। याने कि पाप और पुण्य एक दूसरे के पूरक हैं।"

"आप की बात सुनने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगने लगा है कि पाप और पुण्य एक दूसरे के पूरक हैं।"

"अब हम दोनों के बीच अभी जो बातें हुई हैं उसी को यदि मैं 'पुण्य करने के लिये पाप भी करना पड़ता है' शीर्षक देकर अपने ब्लोग में डाल दूँ तो बन गई ना एक पोस्ट?"

"बिल्कुल बन गई जी!"

"तो जब मैं कहता हूँ कि 'पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है' तो क्या गलत कहता हूँ?"

"बिल्कुल सही कहते हैं जी आप!"

"चाय पियेंगे आप? मँगवाऊँ?"

"नहीं लिख्खाड़ानन्द जी, फिर कभी पी लूँगा, आज जरा जल्दी में हूँ। चलता हूँ, नमस्कार!"

"नमस्कार!"

16 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

वाह! अवधिया जी-ये तो हकीम लुकमान से बढ कर नुख्शा दे दिया, बधाई हो।

Unknown said...

achha hai avdhiyaji !

badhiya vishya chuna hai......

vaise paap aur punya wali misaal gazab ki lagi

संजय बेंगाणी said...

अब पाप करते समय दिल में अपराध बोध नहीं होगा :)

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

पुण्य करने के लिये पाप भी करना पड़ता है। पाप और पुण्य का एक दूसरे के बिना काम ही नहीं चल सकता।

मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी... एकदम प्रैक्टिकल बात कही आपने.....

अन्तर सोहिल said...

तालियां

धन्यवाद जी अब हमें पाप करते वक्त भी ख्याल रहेगा कि कुछ ना कुछ पुण्य भी हो रहा है;)

पाप-पुण्य, सही-गलत, अच्छा-बुरा मेरे विचार में तो इनकी परिभाषा हो ही नही सकती
समय, स्थिति और समाज के हिसाब से इनकी अदला-बदली हो जाती है

प्रणाम स्वीकार करें

Anonymous said...

लिख्खाड़ानन्द, टिप्पण्यानन्द वार्तालाप तो बड़ा रोचक चल रहा :-)

अन्तर की चुटकी ने भी मुस्कुराहट ला दी कि
अब हमें पाप करते वक्त भी ख्याल रहेगा कि कुछ ना कुछ पुण्य भी हो रहा है;)

बी एस पाबला

डॉ टी एस दराल said...

हा हा हा ! अवधिया जी आपने तो वकीलों को मुलजिमों का बचाव करने का एक और नुस्खा बता दिया।
अब तो पुण्य करते हुए भी सोचना पड़ेगा की कहीं पाप तो नहीं हो रहा।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

अवधिया जी, आजकल आप हँसी हँसी में बडी गहरी बातें कहने लगे हैं ।
पाप ओर पुण्य की क्या सटीक व्याख्या की है...लाजवाब्! :)

सूर्यकान्त गुप्ता said...

बहुत बढ़िया सिलसिला चल पड़ा है
लिक्खान्यानंद और टिप्पन्न्यानंद संवाद का
कोई बना न ले इसे विषय विवाद का
लिखा है पुण्य करने के लिए पाप भी करना पड़ता है
तो मुझे भी याद आ गया की कहीं मैंने किसी सभा में
कहा था "परमार्थ में भी स्वार्थ छिपा हुआ है

सूर्यकान्त गुप्ता said...

जहां तक कोई भी काम के कठिन व सरल होने का प्रश्न है
भाई कोई भी काम कठिन भले हो असंभव नहीं हो सकता
चाहे कोई इसे व्यंग्य में ले, या अपनी भावना ही प्रकट करे

राज भाटिय़ा said...

अवधिया जी ऎसे पाप पुन्य से भी अच्छॆ होते है, आदमी कई बार झूठ इस लिये बोलत है जिस से किसी की जान बच जाये, ओर वो झुठ सच से बडा हुआ ना. बहुत सुंदर लिखा आप्ने.
धन्यवाद

प्रवीण said...

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हा हा हा हा !
बहुत अच्छा है।
आभार!

मनोज कुमार said...

विचार के क्षण ही नहीं मनोरंजन और फुलझड़ियों का ज़ायका भी मिला।

Udan Tashtari said...

अब समझ गये कि पोस्ट कैसे लिखना है..

Khushdeep Sehgal said...

अरे अवधिया जी,
आपने गजब की सीख दी है...पुण्य के लिए पाप भी करना है तो करो...क्या सिर्फ पुण्य से काम नहीं चलेगा...आपकी इस सीख से महफूज़ बड़ा खुश है...कह रहा है...रोक सको तो रोक लो...अब आप ही उसे रोकिए...

जय हिंद...

दिवाकर मणि said...

पाप-पुण्य के चक्कर ने, दिया सिर चकराय.
दिया सिर चकराय, टिपियाउं अब कैसे.
कहत "मणि" टिप्पणीकार, चेप दो ऐसे-तैसे.
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अवधिया जी, वाह-वाह !!
सुंदर, मजेदार, प्रेरणास्पद, शोभन आलेख हेतु धन्यवाद आपका. :)