Monday, August 23, 2010

अंग्रेजों ने भारत को जीता नहीं था, भारत तो उन्हें सेंत-मेंत में ही मिल गया था

जिस प्रकार से मोहम्मद बिन कासिम और मोहम्मद गोरी जैसे आक्रमणकारियों में बाहर से आकर भारत पर हमला किया था क्या उसी प्रकार से कभी किसी अंग्रेज योद्धा ने अपनी सेना के साथ आकर भारत पर आक्रमण किया था?

उपरोक्त प्रश्न का उत्तर केवल नहीं में ही मिलता है। वास्तविकता तो यही है कि इंग्लैंड और हिन्दुस्तान के बीच कभी कोई लड़ाई हुई ही नहीं।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब इंग्लैंड ने कभी भारत पर आक्रमण ही नहीं किया तो फिर आखिर वह भारत का स्वामी कैसे बन बैठा?

ऐसे प्रश्न जब मेरे मष्तिस्क में उठते हैं तो मुझे खुद पर खीझ आने लगती हैं कि क्यों मुझे कभी इतिहास में रुचि नहीं रही? अपने विद्यार्थी काल में क्यों मुझे गणित जैसा विषय सरल और इतिहास जैसा विषय दुरूह लगा करता था? विश्व का इतिहास न सही, क्यों मैंने भारत का इतिहास तक को कभी नहीं पढ़ा?

अस्तु, मानव-मष्तिस्क अत्यन्त विचित्र है! जब इसके भीतर प्रश्न कुलबुलाने लगते हैं तो यह अधीर हो जाता है उनके उत्तर पाने के लिए। तो उपरोक्त प्रश्न का उत्तर जानने के लिए मैंने भारत के इतिहास से सम्बन्धित सामग्री खोज कर खंगालना शुरू किया तो बहुत सी विचित्र बातें जानने को मिलीं। सच तो यह है कि मुझे भारत का इतिहास ही अत्यन्त विचित्र लगने लगा।

पन्द्रहवीं शताब्दी में जब वास्को-डि-गामा भारत पहुँचा तो उसने जाना कि भारत को "सोने की चिड़िया" यों ही नहीं कहा जाता। भारत के पास अपार सम्पदा का भण्डार था। भारत की अथाह और अतुलनीय सम्पदा को देखकर उसकी आँखें चौंधिया गईं। उसने जब वापस जाकर यहाँ के वैभव के बारे में यूरोप को बताया तो यूरोपीय लोगों का मुँह में पानी आने लग गया और परिणामस्वरूप हिन्द महासागर यूरोपीय समुद्री डाकुओं से पट गया। सोलहवीं शताब्दी में यूरोप के विभिन्न देशों के समुद्री डाकू भारत के व्यापारी जहाजों को, जो कि भारत के ही एक समुद्री तट से दूसरे समुद्र तट में जाकर भारत में ही व्यापार किया करते थे, लूटते रहे। पुर्तगालियों ने तो मंगलौर, कंचिन, लंका, दिव, गोआ और बम्बई के टापू को अपने अधिकार में ही ले लिया।

पुर्तगाल और स्पेन भारतीय जहाजों को लगभग दो सौ साल तक लूटते रहे और इस लूट की सम्पत्ति से मालामाल हो गए। किन्तु इंग्लैंड का भारत से पहली बार  सम्पर्क सत्रहवीं शताब्दी में ही हुआ क्योंकि उसके पास भारत आने के रास्ते का नक्शा नहीं था। रानी एलिजाबेथ के शासनकाल में सर फ्रांसिस ड्रेक नामक एक डाकू, जो कि 'समुद्री कुत्ते' के नाम से विख्यात था, एक पुर्तगालियों के जहाज को लूट लिया तो उसमें उसे लूट के माल के साथ भारत आने का समुद्री नक्शा भी मिल गया। इस नक्शे के मिल जाने कारण ही ईंस्ट इंडिया कंपनी की नींव का पहला पत्थर डाला गया।

भारतीय जलमार्ग के नक्शे के मिल जाने के लगभग तीस साल बाद सन् 1608 में अंग्रेजों का 'हेक्टर' नामक एक जहाज सूरत के बन्दरगाह में आकर लगा। जहाज का कप्तान का नाम हाकिन्स था जो कि पहला अंग्रेज था जिसने भारत की भूमि पर कदम रखा था। उन दिनों भारत में बादशाह जहांगीर तख्तनशीन थे। उल्लेखनीय बात यह है कि सैकड़ों वर्षों तक लुटते चले आने के बाद भी भारत की सम्पदा उस समय तक भी अपार थी, इतनी अथाह कि कोई भी माई का लाल उसका अनुमान तक नहीं लगा सकता था। हाकिन्स ने आगरा जाकर इंग्लिस्तान के बादशाह जेम्स प्रथम का पत्र और सौगात बादशाह को भेंट की। आगरा की विशाल अट्टालिकाएँ, नगर का वैभव और बादशाह जहांगीर के ऐश्वर्य को देखकर उसकी आँखें चुँधिया गईं। ऐसी शान का शहर उसने अपने जीवन में कभी देखा ही नहीं था, देखना तो दूर उसने ऐसे वैभवशाली नगर की कभी कल्पना भी नहीं की थी।

अस्तु, बादशाह ने उस अंग्रेज अतिथि की खूब खातिरदारी की और न केवल अंग्रेजों को सूरत में कोठी बनाने तथा व्यापार करने का फर्मान जारी किया बल्कि यह भी इजाजत दे दी कि मुगल दरबार में अंग्रेज एलची रहा करे। कुछ दिनों बाद सर टॉमस रो को इंग्लिस्तान के बादशाह ने मुगल-दरबार में अपना पहला एलची बनाकर भेज दिया, जिसने अंग्रेज व्यापारियों के लिए और भी सुविधाएँ प्राप्त कर लीं। अंग्रेजों को कालीकट और मछलीपट्टनम में भी कोठियाँ बनाने की इजाजत मिल गई। अंग्रेजों की प्रार्थना पर भारत के बादशाह ने यह फर्मान भी जारी कर दिया कि अपनी कोठी के अन्दर रहने वाले कम्पनी के किसी मुलाजिम के कसूर करने पर अंग्रेज स्वयं उसे दण्ड दे सकते हैं। यह एक विचित्र बात थी क्योंकि अंग्रेजों ने अपने साथ अपने देश से किसी नौकर को नहीं लाया था बल्कि उन्होंने भारतीयों को ही अपना नौकर बना कर रख लिया था। इस प्रकार से इस फर्मान के तहत अंग्रेजों को अपने भारतीय नौकरों का न्याय करने और उन्हें सजा देना का अधिकार मिल गया। फर्मान जारी करते वक्त उस बादशाह ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन ये अंग्रेज बादशाह के उत्तराधिकारी तक को दण्ड दने लगेंगे और यदि उनका विरोध किया जाएगा तो वे प्रजा का संहार कर डालेंगे तथा बादशाह के उत्तराधिकारी को बागी कहकर आजीवन कैद कर लेंगे।

सन् 1612 में अंग्रजों ने अपनी पहली कोठी सूरत में बनवाया और स्थल मार्ग से आगरा और दिल्ली के बीच व्यापार शुरू कर दिया। बाद में उन्होंने पटना और मछलीपट्टनम, जो कि उन दिनों गोलकुण्डा राज्य के अन्तर्गत बन्दरगाह था, में भी कोठियाँ बनवा डालीं। व्यापार के बढ़ने के साथ ही साथ बालासोर, कटक, हरिहरपुर आदि में भी अंग्रेजों की कोठियाँ बन गईं। विजयनगर के महाराज से जमीन माँग कर अंग्रेजों ने मद्रास में सेंट जार्ज का किला भी बनवा लिया। इस प्रकार से मुगल-राज्य से बाहर अंग्रेजों का एक स्वतन्त्र केन्द्र स्थापित हो गया।

अंग्रेजों का धन्धा मुनाफे में चलने लगा। वे भारत से कच्चे रेशम, रेशम के बने कपड़े, उम्दा किस्म का शोरा सस्ते में खरीद कर अपने देश में बेचने लगे और उनके देश से भेजे गए सोने-चाँदी की भी भारत में अच्छी खपत होने लगी। सन् 1661 में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपना सिक्का चलाने, रक्षा के लिए फौज रखने, किले बनाने और आवश्यकता पड़ने पर लड़ाई लड़ने के भी अधिका प्रदान कर दिए। यह एक बहुत ही विचित्र बात थी कि जिस भारत पर इंग्लैंड के राजा का किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था, उसी भारत पर व्यापार करने वाली अंग्रेजी कंपनी को इंग्लैंड के राजा ने राजनैतिक अधिकार दे दिया और यहाँ के सत्ताधारियों के कान में जूँ भी नहीं रेंगी। यही वह अधिकार था जिसने बाद में भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित की।

यह भी एक चमत्कारिक बात है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधि नहीं थी, उसे भारत और चीन में व्यापार करने का ही इजारा मिला था, किन्तु इस कंपनी ने अपने निजी धन-जन से भारत के भागों को हथियाना शुरू कर दिया। और मजे की बात तो यह है कि उनका निजी धन-जन भी भारत की ही थी याने कि भारत से कमाई गई रकम से भारत के लोगों को ही सैनिक बना कर भारतीय लोगों पर ही आक्रमण करना। इस प्रकार से उस काल में भारत की बीस करोड़ जनता पर ब्रिटेन के मात्र सवा करोड़ निवासियों का वर्चस्व होने की शुरुवात हो गई।

स्पष्ट है कि भारत को अंग्रेजों ने नहीं हराया, भारत ने ही खुद को अंग्रेजों के लिए हरा दिया। भारत अंग्रेजों को सेंत-मेंत में ही मिल गया, बिल्कुल जमीन में पड़े अमूल्य हीरे की तरह। इसका मुख्य कारण था कि भारत में किसी एकछत्र सम्राट का आधिपत्य नहीं था। और सही कहा जाए तो भारत में राष्ट्रीयता की भावना नहीं थी।

राष्ट्रीय भावना न होने की अपनी कमजोरी के कारण भारत हजार से भी अधिक वर्षों तक विदेशियों का गुलाम बना रहा। क्या हम अपनी कमजोरी को कभी समझ पाए हैं? आज भी तो हम क्षेत्रीयता और भाषा के नाम पर लड़ मरने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

7 comments:

अन्तर सोहिल said...

ऐसा ही चलता रहा तो
दोबारा वही समय जल्द ही आ सकता है।

प्रणाम

संगीता पुरी said...

वे हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाते हैं .. आज भी यही तो हो रहा है !!

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

आज भी तो हम क्षेत्रीयता और भाषा के नाम पर लड़ मरने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

उपरोक्त कथन ही गुलामी का प्रमुख कारण है।
गुलामी की मानसिकता से आजाद तो अभी भी नहीं हुए हैं।

आभार

ताऊ रामपुरिया said...

काश आपकी बात को हमारे भाग्य विधाता गण (नेता) समझ पाते.

रामराम.

प्रवीण पाण्डेय said...

इतिहास की बहुत ही खुली व्याख्या की है, खरी खरी।

राज भाटिय़ा said...

आजु भी फ़िर से यही होने जा रहा है जब हम एक गोरी वेटर को सर पर बिठयेगे तो कब तक बचेगे हम ओर हमारी आजादी ज्यं चंद सालए मरे नही आज भी जिन्दा है

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बेहतरीन पोस्ट, श्रावणी पर्व की शुभकामनाएं

लांस नायक वेदराम!---(कहानी)