Saturday, December 11, 2010

लिखाई ऐसी जैसे कि चींटे को स्याही में डुबाकर कागज पर रेंगा दिया हो

क्या आप कभी टायपिस्ट रहे हैं और अलग अलग लोगों की हैंडराइटिंग में लिखे गये पत्रों से आपका पाला पड़ा है?

अरे मैं भी कैसी मूर्खता की बातें कर रहा हूँ, आज के जमाने में टाइपराइटर और टायपिस्ट? अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। क्या करें भाई उम्र अधिक हो जाने के कारण से भूलने की बीमारी हो गई है। हाँ तो मैं बात कर रहा था लिखाई याने कि हैंडराइटिंग की। मेरा पाला बहुत लोगों के हस्तलेख से पड़ा है, टायपिस्ट जो था मैं। सन् 1973 में नौकरी लगी थी मेरी भारतीय स्टेट बैंक में। नरसिंहपुर शाखा में जॉयन करने का आदेश आया था। कॉलेज में पढ़ रहा था मैं उन दिनों, एम.एससी. (फिजिक्स) फायनल में। पिताजी उसी महीने रिटायर हुए थे। प्रायवेट संस्था में शिक्षक थे अतः पेन्शन मिलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। चार भाइयों और एक बहन में सबसे बड़ा मैं ही था। ठान लिया कि पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने की। नौकरी भी तो अच्छी मिली थी, विश्व के सबसे बड़े बैंक, भारतीय स्टेट बैंक में, मोटी तनख्वाह वाली। पिताजी परेशान। दो परेशानियाँ थी उन्हें। एक तो वे चाहते थे कि मैं अपनी शिक्षा पूरी करूँ और दूसरी यह कि यदि मैं नौकरी में जाना ही चाहता हूँ तो किसी को अपने साथ लेकर जाऊं, मैं कभी रायपुर से कहीं बाहर जो नहीं गया था। खैर साहब, पिताजी के लाख कहने के बावजूद मैं अकेले ही नरसिंहपुर गया।

अब आप सोच रहे होंगे कि बात तो हैंडराइटिंग की हो रही थी और ये साहब तो पता नहीं कहाँ कहाँ की हाँकने लग गये, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यस्त चौराहे में मदारी डमरू बजाकर साँप नेवले की लड़ाई वाला खेल दिखाने की बात कह कर मजमा इकट्ठा कर लेता है और आखिर तक साँप नेवले की लड़ाई नहीं दिखाता बल्कि ताबीज बेच कर चला जाता है। धीरज रखिये भाई, आ रहा हूँ हैंडराइटिंग की बात पर, आखिर पहले कुछ न कुछ भूमिका तो बांधनी ही पड़ती है। तो उन दिनों एक महाराष्ट्रियन सज्जन स्थानान्तरित होकर हमारी शाखा में आये हमारे शाखा प्रबन्धक बनकर। एकाध साल बाद रिटायर होने वाले थे। उनकी एक विशेषता यह भी थी कि 'परंतु' को "पणतु" ही कहा करते थे, कभी भी मैंने उनके मुख से परंतु शब्द नहीं सुना। तो मैं उन्हीं सज्जन की हैंडराइटिंग की बात कर रहा था। उन दिनों भारतीय स्टेट बैंक की भाषा अंग्रेजी हुआ करती थी, हिन्दी का चलन तो बहुत बाद में हुआ। जब पहली बार उन्होंने मेसेन्जर के हाथ मेरे पास टाइप करने के लिये एक पत्र भेजा तो उसका एक अक्षर भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा। बिल्कुल ऐसा लगता था कि किसी चींटे को स्याही में डुबा कर कागज पर रेंगा दिया हो। उसमें क्या लिखा है समझने तथा सही टाइप करने के लिये मुझे शाखा प्रबन्धक महोदय के केबिन में 20-25 बार जाना पड़ा था। पर वे जरा भी नाराज नहीं हुये मेरे बार बार आकर पूछने पर। बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे वे! उनके लिखे आठ दस पत्र टाइप कर लेने के बाद मैं उनके लिखने का "मोड" समझने लग गया और फिर मेरी परेशानी खत्म हो गई। खैर उनकी हैंडराइटिंग जैसी भी थी पर अंग्रेजी का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। उनके लिखे एक पत्र में एक बार mutatis-mutandis शब्द आया। मेरे लिये वह शब्द एकदम नया था। मैंने फौरन आक्सफोर्ड इंग्लिश टू इंग्लिश डिक्शनरी निकाली और उस शब्द का मायने खोजने लगा, पर मुझे नहीं मिला। तो मैंने शाखा प्रबन्धक के केबिन जाकर उसका अर्थ पूछा। मेरा प्रश्न सुनकर वे 'हो हो ऽ ऽ ऽ' करके हँसे और बोले अरे अवधिया डिक्शनरी में देख लो ना। मैं बोला कि मैं डिक्शनरी में देख कर ही आया हूँ, मुझे नहीं मिला। तो वे बोले कि डिक्शनरी के पीछे अन्य भाषाओं से अपनाये गये शब्दों वाला अपेन्डिक्स देखो। वहाँ मुझे उस शब्द का अर्थ मिल गया।

उनके अंग्रेजी ज्ञान से बहुत प्रभावित था मैं और समझता था कि वे अंग्रेजी में एम.ए. अवश्य होंगे। बहुत दिनों बाद मुझे पता चला कि वे इम्पीरियल बैंक के समय के थे और उनकी शैक्षणिक योग्यता थी -

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दसवीं फेल।

19 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

जनाब थे भी तो इम्पीरियल बैंक के समय के..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

गज़ब .....वैसे पहले लोगों का जो अंग्रेज़ी ज्ञान था वो आज कल के लोगों में नहीं है ....भले ही वो पोस्ट ग्रेजुएट न हों पर भाषा पर पकड़ अच्छी होती थी ...

Unknown said...

विश्व के सबसे बड़े बैंक? मुझे लगता है इसमें करेक्शन की आवश्यकता है…

Unknown said...

@ Suresh Chiplunkar

सुरेश जी, शाखाओं की संख्या के आधार पर भारतीय स्टेट बैंक आज भी विश्व का सबसे बड़ा बैंक है।

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचक प्रकरण

राज भाटिय़ा said...

मै तो डर ही गया था, कही मेरी हिन्दी की कापी तो आप ने नही देख ली,बच गये जी,लेकिन काफ़ी रोचक लगी यह कहानी, वेसे उस समय पोस्ट मेन की बहुत इज्जत हुआ करती थी, ओर दसवी पास या फ़ेल तो दस गांव मे एक ही मिलता था, जब यह सज्जन बेंक मै लगे होंगे. धन्यवाद

Rahul Singh said...

पोथी पढ़-पढ़ ..., तू कहता कागज की लेखी ...,

Unknown said...

काफ़ी रोचक !

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

अवधिया जी, मेरे स्वर्गीय नानाजी तो आठवीं पास भी नहीं थे और रेलवे में लोको में काम करते थे. उनके अंग्रेज अफसर उन्हें चिट्ठियों में गलती निकालने पर एक चाय पिलाते थे. कई बार वे अंग्रेजों की लिखी चिट्ठियों में कई गलतियाँ निकाल देते थे.

डॉ टी एस दराल said...

बहुत रोचक संस्मरण है अवधिया जी ।
मतलब भी बता देते तो हमारा भी भला हो जाता ।

Unknown said...

@ डॉ टी एस दराल

मैंने तो यह सोचकर mutatis mutandis शब्द का अर्थ इस पोस्ट में नहीं दिया था कि कुछ लोग इसी बहाने शब्दकोष खोलकर देख लेंगे।

अस्तु, mutatis mutandis लैटिन का शब्द है जिसे कि अंग्रेजी में अपना लिया गया है और इसके अर्थ हैं - 1. आवश्यक परिवर्तनों सहित 2. यथोचित परिवर्तनों सहित 3. यथोचित परिवर्तन करके 4. यथोचित परिवर्त्य

वास्तव में वह पत्र एक ऋण प्रस्ताव था और शाखा प्रबन्धक चाहते थे कि किसी प्रकार के परिवर्तन के लिए वह प्रस्ताव वापस न आए बल्कि आवश्यक परिवर्तन मुख्यालय में ही किया जा कर प्रस्ताव स्वीकृत होकर आ जाए ताकि ऋण प्रदाय में विलम्ब ना हो।

कंदील, पतंग और तितलियां said...

अब तो मुद्दत हो जाती है अपने सहयोगी की हैंडराइटिंग देखे हुए। इसलिये किस्से-कहानियों से भी हैंड राइटिंग खत्म हो चली है। मुझे याद है कि किसी की खराब सी हैंडराइटिंग में चिट्ठी आ जाये तो पिताजी मज़ाक में कहते थे, भाई इसे तो किसी केमिस्ट से पढ़वाकर लाओ। दरअसल उनकी खुद की हैंडराइटिंग बहुत ही बढ़िया थी, एकदम मोती जैसे अक्षर। आजकल तो फोटोकॉपी का ज़माना है, 20-22 साल पहले मार्कशीट की कॉपी लगानी हो तो बाज़ार में छपी-छपाई मिलती थी, बस नंबर भरकर किसी अफसर से अटेस्ट करवानी होती थी। लेकिन इससे भी पहले का नमूना मेरे पास है, मेरे पिता ने रायपुर में मध्य प्रदेश विद्युत मंडल की नौकरी ज्वाइन करने से पहले जो मैट्रिक की मार्कशीट लगाई थी वो उन्होने स्केल से प्लेन कागज़ पर लाइनें खींचकर बनाई थी, उसकी पावती वाली कॉपी अब तक मेरे पास है। एक-दो जगह फैली स्याही को छोड़ दें तो लगता ही नहीं कि ये हाथ से बनाई गई है।

डॉ टी एस दराल said...

आभार इस जानकारी के लिए । यह शब्द सुना तो कई बार था , लेकिन जानने की कभी कोशिश ही नहीं की ।

महेन्‍द्र वर्मा said...

अच्छा प्रसंग।
बीते समय के लोगों का अंग्रेजी ज्ञान बहुत अच्छा था, भले ही वे कम पढ़े-लिखे क्यों नहों।

प्रवीण said...

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आदरणीय अवधिया जी,

अत्यन्त रोचक संस्मरण, अच्छा लगा इसे पढ़ना...

उनके अंग्रेजी ज्ञान से बहुत प्रभावित था मैं और समझता था कि वे अंग्रेजी में एम.ए. अवश्य होंगे। बहुत दिनों बाद मुझे पता चला कि वे इम्पीरियल बैंक के समय के थे और उनकी शैक्षणिक योग्यता थी -

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दसवीं फेल।


वह दौर अलग था... अब, मैं तो एक दो ऐसों को भी जानता हूँ जो अंग्रेजी में परास्नातक हैं वह भी प्रथम श्रेणी से, परंतु एक त्रुटिहीन पत्र तक ड्राफ्ट नहीं कर पाते...

कहाँ आ गये हैं हम...:(


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शिवम् मिश्रा said...


बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - देखें - 'मूर्ख' को भारत सरकार सम्मानित करेगी - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा

Kunwar Kusumesh said...

बहुत अच्छी भूमिका बनाते हुए चलते हैं आप.पढ़कर वाक़ई अच्छा लगा.हंसी का पुट भी अपने बीच बीच में डाला था वो और भी अच्छा लगा. राहुल जी से आपके ब्लॉग का पता मिला.एक coincidence है कि मैंने भी 1973 में LIC से सर्विस शुरू की थी.इस साल retire हुआ हूँ.

Swarajya karun said...

दिलचस्प आलेख. यह साबित करता है कि सिर्फ डिग्री या डिप्लोमा हासिल कर लेने से ही कुछ नहीं होता . व्यावहारिक ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है.

शरद कोकास said...

1973 मे मोटी तनख्वाह ? अवधिया जी उन शाखा प्रबन्धक का नाम भी बता देते तो हमे अच्छा लगता ।