Monday, December 20, 2010

भारत में मुसलमानों की सफलता के कारण

(सामग्री 'आचार्य चतुरसेन' के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)

हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ

लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश-देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका सम्पर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने उस संस्कृति के आगे सिर झुकाया और उसमें अपने को लीन कर लिया। यद्यपि ये विदेशी-शक, ग्रीक, हूण, सीथियन, सूची, कुशान आदि-हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था एवं विभिन्न जातीय समुदायों के कारण उनमें पूर्णतया नहीं मिल पाए, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, कला और विज्ञान को पूर्णतया अपनाकर हिन्दुओं की अनेक जातियों की भाँति अपनी एक जाति बना ली, और ये हिन्दू जाति का अविच्छिन्न अंग बन गए-ये ही आज राजपूत, गूजर, जाट, खत्री, अहीर आदि के रूप में हैं।

परन्तु मुसलमानों में एक ऐसा जुनून था कि वे ईरान, ग्रीस, स्पेन, चीन और भारत कहीं की भी संस्कृति से प्रभावित नहीं हुए। किसी भी देश की संस्कृति उन्हें अपने में नहीं मिला सकी। वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी विजयिनी संस्कृति का डंका बजाते ही गए। उनके सामने एकेश्वरवाद, मुहम्मद साहब की पैगंबरी, कुरान का महत्व, बहिश्त और दोज़ख के स्पष्ट कड़े सिद्धान्त ऐसे थे, कि किसी भी संस्कृति को उनसे स्पर्द्धा करना असम्भव हो गया। उनके धर्म में तर्क को स्थान न था, तलवार को था। तलवार लेकर अपनी अद्भुत संस्कृति की वर्षा करते हुए, वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी राजनैतिक सत्ता एवं सांस्कृतिक सत्ता स्थापित करते गए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अपनी सांस्कृतिक सत्ता पर विशेषता रखता था, और भारत पर मुस्लिम संस्कृति की विजय, अन्य देशों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की ही थी। भारत की राजनैतिक सत्ता संयोजक और विभाजक द्वन्द्वों से परिपूर्ण थी। संयोजक सत्ता की प्रबलता होने पर मौर्य, गुप्त, वर्धन आदि साम्राज्य सुगठित हुए, परन्तु जब विभाजक सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ, तो केन्द्रीय शक्ति के खण्ड-खण्ड हो गए और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया।

विभाजक सत्ता

जिस समय भारत में मुस्लिम आगमन हुआ; उस समय विभाजक सत्ता का बोलबाला था। भारत छोटे-छोटे अनियन्त्रित टुकड़ों में बँट गया था। एकदेशीयता की भावना उनमें न रही थी। ये अनियन्त्रित राज्य परस्पर राजनैतिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। प्रत्येक खण्ड राज्य अपने ही में सीमित था। यदि किसी एक खण्ड राज्य पर कभी विदेशी आक्रमण होता, तो वह भारत पर आक्रमण नहीं समझा जाता था। यदि कुछ राजा मिलकर एक होते भी थे, तो वैयक्तिक सम्बन्धों से। यह नहीं समझते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। धार्मिक और सामाजिक भिन्नताएँ भी इसमें सहायक थीं। दिल्ली का पतन चौहानों का, और कन्नौज का पतन राठौरों का समझा जाता था। इसमें हिन्दुत्व के पतन का भी समावेश है, इस पर विचार ही नहीं किया जाता था। ये छोटी-छोटी रियासतें, साधारण कारणों से ही परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और शत्रुभाव से ऐसी विरोधिनी शक्तियों के अधीन हो गई थीं, कि सहायता तो दूर रही, एक के पतन से दूसरी को हर्ष होता था। ऐसी हालत में एक शक्ति को श्रेष्ठ मानकर विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना तो दूर की बात थी।

भ्रातृत्व, एकता और अनुशासन

मुसलमान एकदेशीयता और एकराष्ट्रीयता के भावों से ग्रथित थे। सब मुसलमान बन्धुत्व के भावों से बँधे थे। सामूहिक रोज़ा-नमाज़, खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था। उनकी संस्कृति में एक का मरना सब का मरना, और एक का जीना सबका जीना था। राजपूतों में अनैक्य ही नहीं, घमण्ड भी बड़ा था। इससे कभी यदि वे एकत्र होकर लड़े भी, तो अनुशासन स्थिर न रख सके। मुसलमानों का अनुशासन अद्भुत था। उनके अनुशासन और धार्मिक कट्टरता ने ही उन्हें यह बल दिया, कि अपने से कई गुना अधिक हिन्दू सेना पर भी उन्होंने विजय पाई। युद्ध में जहाँ उन्हें लूट का लालच था, वहाँ धार्मिक पुण्य की भावना भी थी। धन और पुण्य दोनों को तलवार के बल पर वे लूटते थे। काफिरों को मौत के घाट उतारना या उन्हें मुसलमान बनाना, ये दोनों काम ऐसे थे, जिनसे उन्हें लोक-परलोक के वे सब सुख प्राप्त होने का विश्वास था, जिनके लुभावने वर्णन वे सुन चुके थे। और जिन पर बड़े-से-बड़े मुसलमान को भी अविश्वास न था। इसी ने उनमें स्फूर्ति और एकता एवं विजयोन्माद उत्पन्न कर दिया। हिन्दुओं में ऐसा कोई भाव न था। जात-पाँत के झगड़ों ने उनकी बन्धुत्व-भावना नष्ट कर दिया था, और विभाजक सत्ता ने उनकी राजनैतिक एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तिस पर सत्ताधारियों की गुलामी ने उनमें निराशा, विरक्ति और खिन्नता के भाव भी भर दिए थे। ऐसी हालत में देश-प्रेम या राष्ट्र-प्रेम उनमें उत्पन्न ही कहाँ से होता? राजपूतों में राजपूतीपन का जरूर जुनून था, पर इस रत्ती-भर उत्तेजक शक्ति के बल पर वे सिर्फ पतंगे की भाँति जल ही मरे, पाया कुछ नहीं।

हिन्दू समाज व्यवस्था ही पराजय का कारण

जब कोई नया आक्रमणकारी आता, प्रजा राजा को सहयोग देने की जगह अपना माल-मत्ता लेकर भाग जाती थी। राजा के नष्ट होने पर वह दूसरे राजा की अधीनता बिना आपत्ति स्वीकार कर लेती थी। राजपूत अन्य जाति के किसी योद्धा या राजनीतिज्ञ को कुछ गिनते ही न थे। इसी से कड़े से कड़े समय में भी राजा और प्रजा में एकता के भाव नहीं उदय होते थे। परन्तु मुसलमानों में भंगी से लेकर सुलतान तक एक ही जाति थी। प्रत्येक मुसलमान तलवार चलाकर काफिरों को मारकर पुण्य कमाने का या मरकर गाज़ी होने का इच्छुक रहता था। इस प्रकार हिन्दू समाज-व्यवस्था ही हिन्दुओं की पराजय का एक कारण बनी।

दूषित युद्धनीति

राजपूतों की युद्धनीति भी दूषित थी। सबसे बड़ा दूषण हाथियों की परम्परा थी। सिकन्दर के आक्रमण तथा दूसरे अवसरों पर प्रत्यक्ष ही हाथी पराजय का कारण बने थे। मुस्लिम अश्वबल विद्युत-शक्ति से शत्रु को दलित करता था। परन्तु हिन्दू सेनानी तोपों का आविष्कार होने पर भी हाथी पर ही जमे बैठे रहकर स्थिर निशाना बनने में वीरता समझते थे।

दूसरी वस्तु स्थिर होकर लड़ना तथा पीछे न हटना, उनके नाश का कारण बने। अवसरवादिता को वहाँ स्थान ही न था। युद्ध-योजना दुस्साहस पर ही निर्भर थी। बौद्धिक प्रयोग तो वहाँ होता ही न था। पीठ दिखाना घोर अपमान समझा जाता था। युद्ध में जय-प्राप्ति की भावना न थी, किन्तु जूझ मरने की थी। यद्यपि राजपूत साधारण कारणों से आपस में तो आक्रमण करते थे, पर विदेशियों पर इन्होंने कभी आक्रमण नहीं किया।

तीसर दोष, सेनापतियों का आगे होकर उस समय तक युद्ध करना, जब तक कि वे मर न जावें, युद्ध न था, वरन् मृत्यु-वरण था। यह नीति महाभारत से लेकर राजपूतों के पतन तक भारत में देखी गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय युद्ध-कला का नेतृत्व योद्धाओं के हाथ में रहा, सेनापति के हाथ में नहीं। सेनापति का तो भारतीय युद्धों में अभाव ही रहा। भारतीय युद्धों के इतिहास में तो आगे चलकर केवल दो ही रणनीति-पण्डित हुए, एक मेवाड़ के महाराज राजसिंह, दूसरे छत्रपति शिवाजी। और दैव-विपाक से दोनों ही ने अपनी क्षुद्र शक्ति से आलमगीर औरंगजेब की प्रबल वाहिनी से टक्कर ली, तथा उसे सब तरह से नीचा दिखाया।

मुसलमानों का भर्ती क्षेत्र अद्वितीय था। अफगानिस्तान और उसके आस-पास की मुस्लिम जातियाँ, जो भूखी और खूँखार थीं, जिन्हें लूट-लालच और जिहाद का जुनून था, जो काफिरों से लड़कर मरना, शहीद होना और जीतना मालामाल होना समझते थे, भर्ती के समाप्त न होने वाले क्षेत्र थे। मुसलमानों को कभी भी सैनिकों की कमी न रही। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी की सेनाओं में अनगिनत मनुष्यों की मृत्यु होती थी, परन्तु टिड्डी दल की भाँति उन्हें अनगिनत और सैनिक मिल जाते थे। उन्हें इन अभियानों में तो धन-जन की क्षति होती थी, उससे उन्हें अधैर्य और निराशा नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें अटूट धन-रत्न, सुन्दर दास-दासी और ऐश्वर्य प्राप्त होते थे, साथ ही धार्मिक ख्याति और लाभ होने का भी विश्वास था। वे इन्हें धर्मयुद्ध समझते और सदा उत्साहित रहते थे।

हिन्दुओं का भर्ती क्षेत्र सदा संकुचित था, वह एक राज्य या एक जाति और एक वर्ग तक ही सीमित था। छोटी-छोटी रियासतें थीं। उनमें भी केवल क्षत्रिय लड़ते थे। अन्य वर्गों की उन्हें कोई सहायता ही नहीं प्राप्त होती थी। इसलिए वे युद्धोत्तर-काल में निरन्तर क्षीण होते जाते थे। उनकी युद्धकला ऐसी दूषित थी कि एक-दो दिन के युद्ध में ही उनके भाग्यों का समूल निपटारा हो जाता था। फिर कुछ करने-धरने-संभलने की तो कोई गुंजाइश ही न थी।

यदि आप कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित युद्ध-नीति पर गम्भीर दृष्टि डालें, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा। उसमे ऐसी विकसित युद्ध-कला की व्याख्या है, कि जिसके आधार पर सब मानवीय और अमानवीय तत्वों तथा गुण-दोषों को युद्ध के उपयोग में लिया है। बड़े दुःख का विषय है कि राजपूतों को इस युद्ध-कला से वंचित रहना पड़ा; उनकी युद्ध-कला केवल मृत्यु-वरण कला थी।

सेनानायक की जब तक मृत्यु न हो जाए, तब तक युद्ध में आगे बढ़कर वैयक्तिक पराक्रम प्रकट करते रहना बड़ी भयानक बात थी। इसकी भयानकता तथा घातकता का यह एक अच्छा उदाहरण है कि पृथ्वीराज ने संयोगिता के वरण में अपने सौ वीर सामन्तों में से साठ को कटा डाला और फिर किसी भाँति वह उनकी पूर्ति न कर सका। जिससे तराइन के युद्धों में उसे पराजित होकर अपना और भारतीय हिन्दू राज्य का नाश देखना पड़ा। राणा साँगा, राणा प्रताप तथा पानीपत के तृतीय युद्ध के अवसरों पर सेनानायकों की इस प्रकार क्षति होने पर, उसकी पूर्ति न होने पर ही हिन्दुओं को पराजय का सामना करना पड़ा।

मुसलमानों की सेना में प्रत्येक महत्वाकांक्षी योद्धा को उन्नत होने, आगे बढ़ने तथा युद्ध-क्षेत्र में तलवार पकड़ने का अधिकार तथा सुअवसर प्राप्त था। यहाँ तक, कि क्रीत दासों को भी अपनी योग्यता के कारण, न केवल सेनापतियों के पद प्राप्त होने के सुअवसर मिले, प्रत्युत वे बादशाहों तक की श्रेणी में अपना तथा अपने वंश का नाम लिखा सके। कुतुबुद्दीन, इल्तमश, बलवन आदि ऐसे व्यक्ति थे जो दास होते हुए भी अद्वितीय पराक्रमी और शक्तिशाली थे। इस प्रकार आप देखते हैं कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत में आकर यहाँ की जनता को अस्त-व्य्त, राज्यों को खण्ड-खण्ड, राजाओं को असंगठित और राजनीति तथा युद्ध-नीति में दुर्बल पाया। अलबत्ता उनमें शौर्य, साहस और धैर्य अटूट था। परन्तु केवल इन्हीं गुणों के कारण वे सब भाँति सुसंगठित मुसलमानों पर जय प्राप्त न कर सके - उन्हें राज्य और प्राण दोनों ही खोने पड़े।

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

स्थिर समाज और अस्थिर समाज के गुणों में कुछ तो अन्तर होगा ही।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

acchha vishleshan.. lekin bhartion ka swaarth aut adoordarshita mukhya kaaran tha..

निर्झर'नीर said...

bahut hi gyanvardhak or sarthak lekh hai
bandhai swikaren

राज भाटिय़ा said...

आज भी तो यही हो रहा हे जी, बहुत सुंदर लेख सुंदर ओर इतिहासिक जानकारी से भरपुर धन्यवाद

सुज्ञ said...

राज जी नें सटीक कहा… आज भी यही हो रहा है।

आज भी अनिति से आकृमण जारी है जिसे हम मात्र आतंकवाद कहते है।

आज भी प्रजा इन युद्दों में हिस्सा नहिं लेती, सिपाही( पुलिस व सैनिक) योद्धा ही लडते है।

सदैव आकृमणकारियों के लिये अनिति लाभप्रद होती है और नितिवानों के लिये स्वरक्षा संघर्ष!!