जुलाई का महीना आ गया। यह जुलाई का महीना हमारे लिए अपनी पिछली कक्षा की पुस्तकों को आधी कीमत में बेचने तथा नई कक्षा के लिए आधी कीमत में पुस्तकें खरीदने का हुआ करता था। हमारे शहर रायपुर के सत्ती बाजार स्थित श्री राम स्टोर्स, जो कि उन दिनों पुरानी पुस्तकें खरीदने तथा बेचने का एकमात्र स्थान हुआ करता था, के सामने स्कूल के विद्यार्थियों की भीड़ जमा होती थी। बच्चे आते थे श्री राम स्टोर्स में अपनी किताबें बेचकर अगली कक्षा की किताबें खरीदने के उद्देश्य से किन्तु कुछ पैसे बचाने की लालच में स्वयं एक दूसरे से ही खरीदना और बेचना शुरू कर दिया करते थे। एक दूसरे से वार्तालाप शुरू हो जाया करता था - "ए तेरे को चौथी कक्षा का सामाजिक अध्ययन चाहिए क्या?" "नहीं मुझे तो सामान्य विज्ञान की पुस्तक चाहिए" "तेरे पास बाल भारती है क्या?" और दुकान संचालक डाँट-डाँट कर उन्हें भगाना शुरू कर देता था क्योंकि उससे उसका धंधा जो चौपट होने लगता था। थोड़ी देर के लिए तो बच्चे दूर भाग जाते थे पर कुछ ही देर बाद फिर से वहीं इकट्ठे होकर अपना वही काम शुरू कर देते थे।
पर आज के स्कूलों में तो हर साल ही पुस्तकों को बदल देने की परिपाटी चल पड़ी है। क्यों न चले आखिर? यदि बच्चे पुरानी पुस्तकों को आपस में एक-दूसरे को बेचने-खरीदने लगें तो स्कूलों से या स्कूल द्वारा नियत दुकानों से पुस्तकें कौन खरीदेगा? स्कूलों को मिलने वाले कमीशन का क्या होगा? आज तो स्कूलों में न केवल कापी-किताब बल्कि वस्त्र, टाई, जूते, मोजे सभी कुछ बिक रहे हैं। आज तो स्कूल में ही दुकान है पर लगता है कि आने वाले दिनों में दुकानों में स्कूल हुआ करेगा।
3 comments:
इस खरीद फरोख्त में बच्चे कॉमर्स के बारे में खुद ही बहुत कुछ सीख जाते थे - ... हाँ कुछ दिनों पहले खबर यह भी सुनी थी कि स्कूल खुला नहीं है क्योंकि स्कूल के भवन में फ़िलहाल के लिए अनाज गोदाम बना हुआ है -और बच्चे बाहर खुले में बैठ कर पढ़ रहे हैं ....
एक पूर्ण व्यवसाय का रूप ले चुकी है शिक्षा व्यवस्था।
ब्लॉगरों को भी यही शुरू कर देना चाहिए...
ए मेरे पास फलानी पोस्ट है...पढ़ेगा क्या...
जय हिंद...
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