Friday, December 24, 2010

तुम क्यों लिखते हो?

पोस्ट का शीर्षक मेरा अपना नहीं है बल्कि रामाधारी सिंह 'दिनकर' जी की एक कविता का है। पता नहीं दिनकर जी ने अपनी कविता में यह प्रश्न किससे पूछा था, किन्तु कई सालों बाद इस कविता को फिर से पढ़ कर मुझे लगा कि कहीं उन्होंने यह प्रश्न मुझ जैसे अकिंचन ब्लोगर, जिसने 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' जैसा अपना एक ब्लोग बना रखा है, से तो नहीं किया है! लीजिए आप भी पढ़ें दिनकर जी की इस कविता को -

तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अन्तरतम को
औरों के अन्तरतम के साथ मिलाने को?
अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन
जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?

यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से
तब तो मेरे भाई! तुमने यह बुरा किया।
है किसे फिक्र कि यहाँ कौन क्या लाया है?
तुमने ही क्यों अपने को अदभुत मान लिया?

कहनेवाले, जाने क्या-क्या कहते आए,
सुनने वालों ने मगर, कहो क्या पाया है?
मथ रही मनुज को जो अनन्त जिज्ञासाएँ,
उत्तर क्या उनका कभी जगत ने पाया है?

अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा,
अम्बर से मेरे लिए चीज़ क्या लाए हो?
मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा, जरा नीचे देखो,
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?

तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया?
बस यही बात हो गई सदा दुहराने को?
सनसनी, फेन, बुदबुद, सब कुछ सोपान बना,
अच्छी निकली यह राह सत्य तक जाने की।

दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का,
क्या कभी उसे तुमने देखा या जाना है?
तुतले कंपन उठते हैं जिस गहराई से,
अपने भीतर क्या कभी उसे पहचाना है?

जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल,
असली निदान पर जड़े वज्र के ताले हैं;
उत्तर शायद, हो छिपा मूकता के भीतर
हम तो प्रश्नों का रूप सजाने वाले हैं।

तब क्यों रचते हो वृथा स्वांग, मानो सारा,
आकाश और पाताल तुम्हारे कर में हों?
मानो, मनुष्य नीचे हो तुमसे बहुत दूर,
मानो, कोई देवता तुम्हारे स्वर में हो।

मृतिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका?
खुलने की जोखिम से वह तुम्हें बचाती है?
लेकिन, मनुष्य की द्वाभा और सघन होती,
धरती की किस्मत और भरमती जाती है।

धो डालो फूलों का पराग गालों पर से,
आनन पर से यह आनन अपर हटाओ तो
कितने पानी में हो, इसको जग भी देखे,
तुम पल भर को केवल मनुष्य बन जाओ तो।

सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे,
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को;
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल,
जो जान बूझ गंदला करते अपने जल को।

10 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

तुम क्‍यों लिखते हो? बहुत ही सटीक प्रश्‍न। कालजयी रचना को पढ़ाने का आभार।

डॉ टी एस दराल said...

मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा, जरा नीचे देखो,
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?

इन पंक्तियों ने मन मोह लिया ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार ।

निर्मला कपिला said...

विचारनीय प्रश्न। बहुत अच्छी लगी कविता। धन्यवाद।

प्रवीण पाण्डेय said...

विचारणीय प्रश्न हैं, पर लिखने पर कल लिखूँगा, पढ़ियेगा।

निर्झर'नीर said...

सुन्दर

Rahul Singh said...

मैंने अपने से यह सवाल कर लिया, जवाब भी आ जाएगा.

Unknown said...

बहुत अच्छी लगी कविता।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

विचारणीय प्रश्न हैं और शायद सब का उत्तर मिलना भी सम्भव नहीं है...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दिनकर जी की रचना यहाँ पढवाने के लिए आभार ...बहुत सटीक प्रश्न किये हैं इस कविता में ..

शरद कोकास said...

बहुत अच्छी रचना दी है दिनकर जी की । धन्यवाद ।